हर दशक आधा डिग्री बढ़ रहा न्यूनतम तापमान, छोटे शहरों और गांवों में बढ़ती गर्मी से अनदेखे संकट
Apr 20, 2025, 14:56 IST

गर्मी का मौसम आते ही जलवायु परिवर्तन फिर से चर्चा में आ जाता है। हम बड़े शहरों जैसे अहमदाबाद, दिल्ली या मुंबई की गर्मी पर बात करते हैं, जहां हीट एक्शन प्लान, एयर कंडीशनिंग और कूल रूफिंग जैसे उपाय सक्रिय हैं। लेकिन देश के छोटे शहरों और कस्बों में भी अब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव तेजी से दिखने लगा है और इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं वे लोग जो न तो इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं, और न ही इसके खिलाफ रक्षा करने के लिए पूरी तरह सुसज्जित। हरियाणा इसका एक जीवंत उदाहरण है। गेहूं और सरसों जैसी फसलों की भूमि, जहां मौसम कभी समय पर और सटीक हुआ करता था, अब वहाँ मौसम का मिज़ाज बेकाबू होता जा रहा है। ईआरए-5 उपग्रह आधारित जलवायु डेटा के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में हरियाणा में न्यूनतम तापमान यानि रात का सबसे ठंडा समय प्रति दशक औसतन 0.50 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। अधिकतम तापमान यानि दिन की चरम गर्मी भी बढ़ी है, लेकिन अपेक्षाकृत कम दर से, यानी 0.32 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक। यह मामूली फर्क नहीं है। यह उस प्राकृतिक संतुलन की दरार है जो इंसानों और प्रकृति को शीतलता और पुन: स्फूर्ति देता था। आईआईटी गांधीनगर के एसोसिएट प्रोफेसर और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ प्रो. उदित भाटिया कहते हैं, जब रातें भी गर्म रहने लगती हैं, तो शरीर दिन की गर्मी से उबर नहीं पाता। यह तापमान में वृद्धि का एक ‘मौन संकट’ है, जिसे हम आंकड़ों में तो देखते हैं, पर अनुभव करते हैं अपने घरों, खेतों और नींद में। वे आगे जोड़ते हैं कि न्यूनतम तापमान का लगातार ऊँचा बने रहना शरीर की थर्मोरेग्युलेशन प्रणाली पर असर डालता है जिससे नींद बाधित होती है, हृदय पर दबाव बढ़ता है, और विशेष रूप से बच्चे, बुज़ुर्ग और निर्माण स्थलों पर काम करने वाले श्रमिक अधिक जोखिम में आ जाते हैं।
यह परिवर्तन केवल ग्रीनहाउस गैसों की वजह से नहीं हो रहा। वैश्विक स्तर पर कार्बन डाईआक्साइड और मीथेन जैसे गैसें जरूर तापमान बढ़ा रही हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर भी कई कारण इस आग में घी डाल रहे हैं। प्रो. भाटिया बताते हैं कि शहरीकरण, सीमित हरियाली, और बिना समुचित योजना के फैलते हुए सडक़ और भवन नेटवर्क ये सभी कारक ज़मीन की ऊष्मा और नमी से निपटने की प्राकृतिक प्रक्रिया को बाधित करते हैं। सडक़ें और कंक्रीट की इमारतें दिन में गर्मी सोखती हैं और रात में उसे धीरे-धीरे छोड़ती हैं, जिससे ‘अर्बन हीट आइलैंड’ जैसी स्थितियाँ जन्म लेती हैं। हरियाणा जैसे राज्य, जिनका वैश्विक जलवायु परिवर्तन में योगदान बहुत सीमित है, उन्हें भी इसके गहरे प्रभाव झेलने पड़ रहे हैं। सिरसा, हिसार और फतेहाबाद जैसे जिले, जहां गर्म हवाएं पहले से ही कठोर होती हैं, अब रातों में भी उस गर्मी की निरंतरता दर्ज कर रहे हैं। इसका असर केवल मानव स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। जब रातें गर्म रहती हैं, तो खेतों को ‘पुनर्योजित’ (रिचार्ज) होने का समय नहीं मिल पाता। गेहूं जैसी रबी फसलें, जो ठंडी रातों में अच्छी उपज देती हैं, उनकी उत्पादकता घट सकती है। पशुपालन क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं जानवरों को भी तापमान गिरावट की आवश्यकता होती है ताकि वे आराम और दूध उत्पादन जैसी जैविक प्रक्रियाएं सुचारु रूप से कर सकें।
प्रो. भाटिया मानते हैं कि इस संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधान जैसे मौसम पूर्वानुमान या एयर कंडीशनर पर्याप्त नहीं होंगे। इसके लिए स्थानीय, समुदाय-आधारित और सतत उपाय ज़रूरी हैं। वे सुझाते हैं कि गांवों और कस्बों में ताप आश्रयों की व्यवस्था की जानी चाहिए जहाँ लोग अत्यधिक गर्मी के समय कुछ समय बिताकर अपने शरीर को राहत दे सकें। इसके साथ ही, स्कूलों, पंचायत भवनों और सामुदायिक केंद्रों की छतों पर रिफ्लेक्टिव कोटिंग या कूल रूफिंग तकनीक को अपनाया जा सकता है, जिससे इमारतें कम गर्म हों और बिजली की खपत भी घटे। एक रोचक और अक्सर उपेक्षित सुझाव है समुदाय-आधारित स्विमिंग पूल या जल प्लाज़ा की स्थापना। प्रो. भाटिया कहते हैं कि इन पूलों का उपयोग केवल बच्चों की मौज-मस्ती तक सीमित नहीं होना चाहिए। यदि सोच-समझकर योजना बनाई जाए, तो ये स्विमिंग पूल गर्मी से राहत के सार्वजनिक साधन बन सकते हैं खासकर उन इलाकों में जहाँ कूलिंग की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे उपाय न केवल तापमान को स्थानीय रूप से कम कर सकते हैं, बल्कि सामूहिकता, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन को भी बढ़ावा देते हैं।
जलवायु अनुकूलन अब केवल शहरों तक सीमित न रहकर गांवों और छोटे कस्बों में भी लागू होना चाहिए। यह केवल नीति का विषय नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा का प्रश्न बन चुका है। और इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है सामाजिक स्वीकार्यता और वैज्ञानिक समझ का समावेश। हरियाणा को चाहिए कि वह अपने मौसम के बदलते संकेतों को गंभीरता से समझे। गर्मी अब केवल पारे की बात नहीं, बल्कि पूरे समाज के तापमान की कहानी कहती है। अगर हम आज तैयारी करेंगे, तो कल राहत पा सकेंगे।
-उदित भाटिया, गांधी नगर गुजराज
यह परिवर्तन केवल ग्रीनहाउस गैसों की वजह से नहीं हो रहा। वैश्विक स्तर पर कार्बन डाईआक्साइड और मीथेन जैसे गैसें जरूर तापमान बढ़ा रही हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर भी कई कारण इस आग में घी डाल रहे हैं। प्रो. भाटिया बताते हैं कि शहरीकरण, सीमित हरियाली, और बिना समुचित योजना के फैलते हुए सडक़ और भवन नेटवर्क ये सभी कारक ज़मीन की ऊष्मा और नमी से निपटने की प्राकृतिक प्रक्रिया को बाधित करते हैं। सडक़ें और कंक्रीट की इमारतें दिन में गर्मी सोखती हैं और रात में उसे धीरे-धीरे छोड़ती हैं, जिससे ‘अर्बन हीट आइलैंड’ जैसी स्थितियाँ जन्म लेती हैं। हरियाणा जैसे राज्य, जिनका वैश्विक जलवायु परिवर्तन में योगदान बहुत सीमित है, उन्हें भी इसके गहरे प्रभाव झेलने पड़ रहे हैं। सिरसा, हिसार और फतेहाबाद जैसे जिले, जहां गर्म हवाएं पहले से ही कठोर होती हैं, अब रातों में भी उस गर्मी की निरंतरता दर्ज कर रहे हैं। इसका असर केवल मानव स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। जब रातें गर्म रहती हैं, तो खेतों को ‘पुनर्योजित’ (रिचार्ज) होने का समय नहीं मिल पाता। गेहूं जैसी रबी फसलें, जो ठंडी रातों में अच्छी उपज देती हैं, उनकी उत्पादकता घट सकती है। पशुपालन क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं जानवरों को भी तापमान गिरावट की आवश्यकता होती है ताकि वे आराम और दूध उत्पादन जैसी जैविक प्रक्रियाएं सुचारु रूप से कर सकें।
प्रो. भाटिया मानते हैं कि इस संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधान जैसे मौसम पूर्वानुमान या एयर कंडीशनर पर्याप्त नहीं होंगे। इसके लिए स्थानीय, समुदाय-आधारित और सतत उपाय ज़रूरी हैं। वे सुझाते हैं कि गांवों और कस्बों में ताप आश्रयों की व्यवस्था की जानी चाहिए जहाँ लोग अत्यधिक गर्मी के समय कुछ समय बिताकर अपने शरीर को राहत दे सकें। इसके साथ ही, स्कूलों, पंचायत भवनों और सामुदायिक केंद्रों की छतों पर रिफ्लेक्टिव कोटिंग या कूल रूफिंग तकनीक को अपनाया जा सकता है, जिससे इमारतें कम गर्म हों और बिजली की खपत भी घटे। एक रोचक और अक्सर उपेक्षित सुझाव है समुदाय-आधारित स्विमिंग पूल या जल प्लाज़ा की स्थापना। प्रो. भाटिया कहते हैं कि इन पूलों का उपयोग केवल बच्चों की मौज-मस्ती तक सीमित नहीं होना चाहिए। यदि सोच-समझकर योजना बनाई जाए, तो ये स्विमिंग पूल गर्मी से राहत के सार्वजनिक साधन बन सकते हैं खासकर उन इलाकों में जहाँ कूलिंग की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे उपाय न केवल तापमान को स्थानीय रूप से कम कर सकते हैं, बल्कि सामूहिकता, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन को भी बढ़ावा देते हैं।
जलवायु अनुकूलन अब केवल शहरों तक सीमित न रहकर गांवों और छोटे कस्बों में भी लागू होना चाहिए। यह केवल नीति का विषय नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा का प्रश्न बन चुका है। और इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है सामाजिक स्वीकार्यता और वैज्ञानिक समझ का समावेश। हरियाणा को चाहिए कि वह अपने मौसम के बदलते संकेतों को गंभीरता से समझे। गर्मी अब केवल पारे की बात नहीं, बल्कि पूरे समाज के तापमान की कहानी कहती है। अगर हम आज तैयारी करेंगे, तो कल राहत पा सकेंगे।
-उदित भाटिया, गांधी नगर गुजराज

