सामाजिक सरोकारों से छिटक कर किस दिशा में जा रहा सिनेमा
सहायक प्रोफेसर
एसजीटी यूनिवर्सिटी
सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह सामाजिक जागरूकता और परिवर्तन का एक शक्तिशाली माध्यम भी है।
यह अलग बात है कि टेक्नोलॉजी और एक्शन इतना हावी हो गया है कि सिनेमा के मूल मंतव्य, लक्ष्य और तार्किक उद्देश्य में भटकाव साफ-साफ परिलक्षित होने लगा है। सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना, वीकेंड पर 'सौ करोड़ी' होना ही पहली प्राथमिकता बनने के कारण सामाजिक सरोकार कहीं दूर ठिठकते जा रहे हैं।
भारतीय सिनेमा, विशेषकर हिंदी सिनेमा ने वर्षों से समाज की परंपराओं, स्तरीय चिंतन और विसंगतियों को प्रतिबिंबित किया है। फिल्में न केवल कल्पना की उड़ान भरती हैं, बल्कि वे समाज में व्याप्त मुद्दों को उजागर करने और चर्चा को प्रेरित करने का काम भी करती हैं।
हिंदी सिनेमा में कई फिल्ममेकर्स ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक सुधारों की दिशा में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके माध्यम से, वे सामाजिक स्थितियों पर प्रश्न उठाने और दर्शकों को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। यह सिने यात्रा न केवल मनोरंजन प्रदान करती है बल्कि यह भी दर्शाती है कि किस प्रकार सिनेमा व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना को सार्थक आकार देने में योगदान दे सकता है हालांकि मनोरंजन, रोमांच, और एक्शन के साथ-साथ सरलीकरण और मिथकों के गहरे प्रभाव वाले हिंदी सिनेमा से समाज में गहरे बदलाव और सुधार की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। फिर भी, कुछ समर्पित फिल्म निर्माताओं जैसे कि बिमल राय, वी. शांताराम, ऋषिकेश मुकर्जी, राजकपूर, के.ए. अब्बास, चेतन आनन्द और महबूब ने समय-समय पर समाजिक सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण फिल्में बनाई हैं, जो सार्थक बदलाव में योगदान देने वाली रही हैं।
अपराधी सुधार एक ऐसा मुद्दा है जिसने फिल्म निर्माताओं को काफी आकर्षित किया है और ऐसी कुछ फिल्में तो बहुत यादगार रही हैं। चंबल में डाकुओं का समर्पण अहिंसा की जीत का एक बड़ा उदाहरण माना जाता है। राज कपूर ने सामाजिक, नैतिक और व्यक्तिगत सुधार की थीम पर 'जिस देश में गंगा बहती है' जैसी लोकप्रिय और कलात्मक फिल्म बनाई जो अपने गीतों, संगीत, फोटोग्राफी और अभिनय के लिए सर्वकालिक यादगार फिल्म बन गई।
डकैत पर सुनील दत्त ने 'मुझे जीने दो' जैसी यादगार फिल्म बनाई। जेल में बंद बहुत खूंखार अपराधियों को भी अहिंसक प्रयासों से सुधारा जा सकता है, यह संदेश वी.शांताराम ने अपनी असरदार फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' में मार्मिक ढंग से दिया।
बिमल राय की अविस्मरणीय फिल्म 'बंदिनी' को कौन भूल सकता है। महिला बंदियों की मजबूरियों और दुखों का इस फिल्म में बहुत मार्मिक चित्रण हुआ है और यह दर्द इन दो गीतों 'अब की बरस भेज भैया' और 'ओ पंछी प्यारे' के कारण और गहरा हो जाता है। इस तरह के यादगार चित्रण से हमेशा के लिए महिला कैदियों की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाने में मदद मिलेगी और यही श्रेष्ठ सिनेमा की बड़ी उपलब्धि है कि वे किसी सामाजिक मुद्दे पर इतनी गहरी छाप इतने अधिक समय के लिए छोड़ सकती है।
दूसरे देश की जेल में फंस गए कैदी से हुए अन्याय का मार्मिक चित्रण 'वीर-जारा' में दिखाया गया है। गुलजार की फिल्म 'अचानक' में मृत्यु दंड के विरुद्ध एक शक्तिशाली संदेश था।
किसी को अपराध की ओर धकेलने में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की अधिक भूमिका होती है, इसकी ओर ध्यान दिलाया राज कपूर की 'आवारा' और 'श्री 420' जैसी फिल्मों ने। सफेदपोश अपराधियों के स्वार्थों और निर्ममता को बेपरदा करने के साथ 'श्री 420' में बेघर लोगों की समस्याओं और आकांक्षाओं का भी अच्छा चित्रण किया गया। 'बूट पालिश' में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों और बाल मजदूरों की समस्याओं और दैनिक संघर्षों का मार्मिक चित्रण था, हालांकि इसका संदर्भ आज की बहसों में कुछ अलग तरह से आता है। इस फिल्म के संगीत 'नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी' ने समस्याओं से घिरे बच्चों को हिम्मत दी।
के.ए. अब्बास की फिल्म 'शहर और सपना' में बेघर लोगों और प्रवासी मजदूरों का तथ्यात्मक चित्रण था। शहर में रात को पानी खोज रहे प्यासे आमजन की पीड़ा बहुत असरदार ढंग से राजकपूर की 'जागते रहो' फिल्म में दर्शकों के सामने आई। ऋषिकेश मुखर्जी की 'नमक हराम' और यश चोपड़ा की 'काला पत्थर' फिल्मों में औद्योगिक और खनन मजदूरों के मुद्दे उठाए गए हैं।
ग्रामीण शोषण व्यवस्था और महिला किसान के अंतहीन संघर्षों का बेहद जीवंत चित्रण महबूब ने अपनी कालजयी फिल्म 'मदर इंडिया' में किया। नरगिस ने इस फिल्म की मुख्य भूमिका में ग्रामीण महिला के मां और किसान दोनों रूपों का अविस्मरणीय प्रदर्शन किया जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया। इससे पहले के.ए. अब्बास और उनके अनेक साथियों ने बंगाल के अकाल पर एक बड़ी जन भागेदारी के प्रयास से 'धरती के लाल' फिल्म बनाई जो अनेक स्तरों पर एक महत्वपूर्ण प्रयास था।
हिन्दी साहित्य की प्रमुख रचनाओं पर बनी कुछ फिल्में प्रेमचंद के ‘गोदान’ और ‘गबन’ तथा फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ पर बनी फिल्में भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रहीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कविता से प्रेरणा लेकर विमल राय ने 'दो बीघा जमीन' जैसी यादगार फिल्म बनाई, जिसमें जमीन छिनने और प्रवासी मजदूर बनने की दर्दनाक कहानी का बहुत सशक्त प्रदर्शन है। श्याम बेनेगल ने ग्रामीण शोषण व्यवस्था पर 'अंकुर', 'निशांत', और 'मंथन' फिल्मों की श्रृंखला बनाई।
साम्प्रदायिक सद्भावना पर वी.शांताराम ने महत्वपूर्ण फिल्म बनाई थी 'पड़ोसी'। सांप्रदायिकता के विरुद्ध एम.एस. सथ्यू की फिल्म गर्म हवा में भी महत्वपूर्ण संदेश हैं। अनेक फिल्मों जैसे 'चौदहवीं का चांद' में विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों की अटूट मित्रता के माध्यम से सद्भावना की गहरी छाप छोड़ी गई है। अब्बास की सात हिंदुस्तानी में भी गोवा की स्वतंत्रता की लड़ाई के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का संदेश था। जातिगत भेदभाव के विरुद्ध प्रेम की जीत का संदेश फिल्म ‘सुजाता’ में है।
धर्म के पाखंडी और लोगों को बांटने वाले पक्ष की तीखी पर मनोरंजक आलोचना फिल्म 'पीके' में उपलब्ध है। 'लगान' में भी औपनिवेशिक उद्दंडता के विरुद्ध उभरी गांववासियों की एकता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का संदेश मिलता है। हालांकि इससे आगे बढ़कर यह फिल्म कमजोर शोषित वर्ग की एकता और दृढ़ निश्चय की प्रेरणादायक और मनोरंजक कहानी भी है।
शिक्षा-सुधार पर हाल में बनी फिल्म 'थ्री इडियट' अच्छी-खासी चर्चा का विषय बनी। विशेष जरूरतों के बच्चों की शिक्षा पर 'तारे जमीन' पर एक बहुत उपयोगी फिल्म है जिसे दर्शकों ने भी काफी पसंद किया। 'हिचकी' फिल्म में जहां शिक्षा सुधार के लिए अहम संदेश है, वहां यह मुख्य रूप से एक शारीरिक चुनौती का साहस और दृढ़ निश्चय से सामना करने वाली अध्यापिका की कहानी है।
'दोस्ती' ऐसे दो मित्रों की मार्मिक कहानी है जिसमें दोनों ही शारीरिक चुनौती या अपंगता झेलते हुए बहुत सहृदयता, मेहनत और निष्ठा का परिचय देते हैं। मूक-बधिर लोग जीवन में किन मुश्किल चुनौतियों का सामना करते हैं, इसकी प्रेरणादायक, मनोरंजक और मार्मिक कहानी गुलजार ने 'कोशिश' में बताई है। संजय लीला भंसाली की 'ब्लैक' फिल्म भी इस संदर्भ में खासी चर्चित रही।
फिल्म 'सीक्रेट सुपर स्टार' में जहां लड़कियों की प्रतिभाओं को चारदीवारी के भीतर कुंठित करने का तीखा विरोध है, वहीं महिला-हिंसा के विरुद्ध भी यह फिल्म एक मुखर आवाज है। दुष्कर्म के विरुद्ध आवाज उठाने के साथ पीड़ित महिलाओं को नया जीवन देने की आवाज 'दामिनी', बी.आर.चोपड़ा की 'इंसाफ का तराजू' और ऋषिकेश मुकर्जी की 'सत्यकाम' फिल्मों में उठाई गई है।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अनेक हिंदी फिल्मों ने सार्थक सामाजिक बदलाव में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि इसके लिए अधिक अनुकूल स्थितियां प्राप्त हों तो योगदान बेहतर और निरंतरता से प्राप्त हो सकता है।