मंदिरों में बढ़ती भीड़: आस्था या दिखावा?
डॉ. अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

कई सालों पहले जब हम मंदिर जाया करते थे, तो वहाँ का दृश्य अलग ही हुआ करता था। शांतिपूर्ण माहौल, घंटियों की मधुर ध्वनि और श्रद्धालुओं की आँखों में भक्ति की चमक। लोग भगवान के दर्शन के लिए आते थे, उनकी आराधना करते थे और मन की शांति पाते थे। लेकिन, आजकल का नजारा कुछ बदला हुआ-सा दिखाई देता है। आजकल मंदिरों में जहाँ चले जाओ वहाँ भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है, जहाँ हर कोई अपने हाथ में मोबाइल या कैमरा लिए दिखाई देता है। लोगों के बीच जैसे सबसे अच्छी फोटो या रील बनाने की कोई होड़-सी लगी हुई है। आपने भी देखा होगा कि आजकल हर धार्मिक स्थल पर लाखों की भीड़ इकट्ठा हो रही है। लेकिन इस भीड़ में से कितने लोग सचमुच भगवान की आराधना करने आते हैं? इस भीड़ को देखकर मेरे मन में प्रश्न उठता है कि क्या वाकई लोगों में इतनी आस्था जाग चुकी है या यह केवल सोशल मीडिया पर वायरल होने के लिए दिखावा हो रहा है??
इस स्थिति को देखकर लगता है कि आजकल मंदिरों में आस्था से अधिक सोशल मीडिया का बोलबाला है। लोग दर्शन करने से पहले अपने कैमरे तैयार रखते हैं, और पूजा की जगह पर एक अच्छी सेल्फी की चिंता उनमें कुछ ज्यादा ही होती है। घंटों लाइन में लगने के बाद, जैसे ही दर्शन का मौका मिलता है, भगवान के सामने हाथ जोड़ने से पहले कैमरा चालू हो जाता है। शायद यही है आज की 'आधुनिक भक्ति'..
आज के समय में मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर जो भीड़ इकट्ठा होती है, उसमें सच्चे भक्त कम ही मिलेंगे, ज्यादातर तो 'रील प्रेमी' ही नजर आएँगे, जिनके लिए धार्मिक स्थल केवल अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल को सजाने के एक सेल्फी पॉइंट बन गए हैं। ऐसा लगता है जैसे पूजा और भक्ति भी अब एक 'कॉन्टेंट क्रिएशन' का हिस्सा हैं। और यह सब शायद इसलिए होता है, ताकि सोशल मीडिया पर दोस्तों और परिचितों को दिखाया जा सके कि वे कितने धार्मिक और भगवान के प्रति समर्पित हैं।
इसका एक उदाहरण है केदारनाथ मंदिर। हर साल लाखों लोग इस तीर्थ यात्रा पर जाते हैं। पहले जहाँ लोग पहाड़ों की कठिन यात्रा कर भगवान शिव के दर्शन करने जाते थे, वहीं आज के समय में लोग मुख्यतः सेल्फी लेने और वीडियो बनाने के लिए इस पवित्र स्थान पर जाते हैं। केदारनाथ की कठिन यात्रा भी अब 'व्लॉग' का हिस्सा बन गई है। भगवान के दर्शन से पहले लोग यह देखना पसंद करते हैं कि उनकी तस्वीरें कितनी 'लाइक' और 'शेयर' हो रही हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि यदि भक्ति सच्ची है, तो क्या इसके लिए सोशल मीडिया पर दिखावा करना जरुरी है? क्या हम बिना किसी को बताए, बिना किसी स्टेटस या पोस्ट के भगवान की आराधना नहीं कर सकते? इस स्थितियों देखकर कभी-कभी लगता है कि यदि मंदिरों में मोबाइल फोन पर रोक लगा दी जाए, तो शायद इस भीड़ का एक बड़ा हिस्सा गायब हो जाएगा। हालाँकि, अब कई धार्मिक स्थलों पर मोबाइल फोन पर आंशिक या पूर्ण प्रतिबंध भी लगाए जा रहे हैं, ताकि इस अनचाही भीड़ को कम किया जा सके। उदाहरण के लिए, त्रयंबकेश्वर मंदिर में मोबाइल पर पूर्ण प्रतिबंध है। यही वजह है कि वहाँ का अनुभव अन्य मंदिरों की तुलना में कहीं अधिक शांतिपूर्ण और ध्यानपूर्ण होता है।
भक्ति का असली मतलब यह है कि आप अपने सच्चे मन से भगवान को याद करें। यदि आपकी आस्था सच्ची है, तो भगवान के दर्शन के लिए आपका वहाँ होना ही काफी है। उसके लिए सेल्फी, स्टेटस और वीडियो की कोई जरुरत नहीं है। असली भक्ति तो वह होती है, जो आप अपने दिल में महसूस करें, चाहे आप मंदिर में हों, अपने घर पर हों या फिर कहीं और। भगवान हर जगह हैं, और सच्चा भक्त वही है, जो बिना किसी दिखावे के उन्हें महसूस कर सके। यह सच है कि मंदिर जाना और तीर्थ करना हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम उस संस्कृति को दिखावे और मोबाइल की दुनिया में खो दें। मोबाइल फोन और सोशल मीडिया का उपयोग कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन जब यह हमारी भक्ति और आस्था को प्रभावित करने लगे, तो हमें रुककर सोचने की जरूरत है।
हमें यह समझना चाहिए कि भक्ति और आस्था हमारे निजी भाव होते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। आस्था को अपनी सीमा में रखें और उसे दिखावे की चीज़ न बनाएँ। यदि हमें सच्चे अर्थों में भक्ति का अनुभव करना है, तो हमें भगवान से जुड़े रहने के लिए दिल से जुड़ने की जरूरत है, न कि कैमरे से। भक्ति और आस्था का असली अनुभव वही होता है, जब आप उसे बिना किसी दिखावे के अपने भीतर महसूस करते हैं।

