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न्यू दिल्ली से पत्रकार ऊषा माहना की कलम से

 
 न्यू दिल्ली से पत्रकार ऊषा माहना की कलम से
 कर्तापन से परे – भीतर की शांति की राह

लेखक: मणिधारी गुरुभक्त – अतुल जैन
(राष्ट्रीय अध्यक्ष, ऑल इंडिया श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेंस)

हम सभी कभी न कभी इस भावना से गुजरते हैं — “मैंने यह किया”, “मेरी वजह से यह हुआ”, “अगर मैं न करता तो सब बिगड़ जाता।”
यह भाव देखने में सामान्य लगता है, परंतु यही कर्तापन हमें भीतर से अस्थिर कर देता है। यह वह सूक्ष्म अहंकार है जो हमें कर्म के बंधन में बाँधता है और धीरे-धीरे शांति को छीन लेता है।

कर्तापन की जड़ हमारे बचपन से ही पड़ने लगती है। जब से हमें यह सिखाया गया कि सफलता ही पहचान है और काम ही मूल्य है, तब से हमने अपने कर्म को अपने “स्व” से जोड़ लिया। हमें लगता है कि यदि हम किसी कार्य के जिम्मेदार हैं तो हमें नियंत्रण और सुरक्षा मिलेगी। इसी नियंत्रण की चाह धीरे-धीरे हमारे भीतर एक डर को जन्म देती है — “अगर मैं नहीं करूँगा तो सब गलत हो जाएगा।” यही डर, कर्तापन की सबसे गहरी जड़ बन जाता है।

जीवन में मिलने वाली प्रशंसा और आलोचना भी इस भाव को और गहराई देती है। सफलता पर शाबाशी का स्वाद मीठा लगता है और असफलता पर आलोचना का डर सालता है। यह दोनों ही अनुभव हमारे भीतर एक स्थायी धारणा बना देते हैं कि “मैं ही करता हूँ, मैं ही उत्तरदायी हूँ।” पर यही धारणा धीरे-धीरे बोझ बन जाती है।

कर्तापन मन में एक सूक्ष्म अहंकार के रूप में बस जाता है। यह अहंकार हर कार्य पर अधिकार चाहता है, हर सफलता में खुद को केंद्र में रखता है, और असफलता में दूसरों को दोषी ठहराता है। धीरे-धीरे यह भाव जीवन की सहजता छीन लेता है। मन में बोझ बढ़ता है, रिश्तों में तंगी आती है और साधना में गहराई नहीं उतर पाती, क्योंकि मन हमेशा “करने” की दिशा में खिंचा रहता है — “होने” की दिशा में नहीं।

समझने योग्य बात यह है कि जब हम परिणाम को लेकर अत्यधिक चिंतित या गर्वित हो जाते हैं, हर काम में अपनी छाप छोड़ने की इच्छा रखते हैं, या कुछ न होने पर खुद को दोषी ठहराने लगते हैं — तब हम कर्ता बन रहे होते हैं। यह संकेत हैं कि मन अब शांत नहीं, बल्कि स्वीकृति खो चुका है।

कर्तापन से मुक्ति किसी तर्क या उपदेश से नहीं, बल्कि जागरूकता से आती है। पहले यह देखिए कि यह भाव कब आता है — कौन-से क्षणों में “मैं” भीतर से सिर उठाता है। उसे केवल देखें, दबाएँ नहीं। यही देखना धीरे-धीरे उसे कमज़ोर करता है।
हर कार्य करते समय यह भावना रखिए — “मैं केवल माध्यम हूँ, करने वाला नहीं।” जब फल की चिंता छोड़कर प्रयास की शुद्धता पर ध्यान दिया जाता है, तब मन हल्का हो जाता है। जो कुछ भी होता है, उसे “ईश्वर की कृपा” या “समय का प्रवाह” मानने का अभ्यास करें। तब अहंकार धीरे-धीरे समर्पण में बदलता है।

ध्यान और स्वाध्याय इस प्रक्रिया के सबसे प्रभावी साधन हैं। जब मन भीतर उतरता है, तो उसे यह बोध होता है कि जीवन में करने वाला कोई “मैं” नहीं, बल्कि अनंत शक्ति का प्रवाह है जो सब कर रहा है। उसी क्षण मन कर्ता से साक्षी बन जाता है।

जिस दिन हम यह समझ लेते हैं कि दीपक जलता है पर कभी नहीं कहता “मैं रोशनी दे रहा हूँ”, उसी दिन जीवन तप बन जाता है।
कर्तापन से मुक्ति का अर्थ है — कर्म को रोकना नहीं, बल्कि उसमें “मैं” को विलीन कर देना।

यही वह अवस्था है जहाँ कर्म, साधना बन जाता है और जीवन, शांति का उत्सव।
 “करते रहिए, पर करने का ‘मैं’ छोड़ दीजिए — वही सच्ची साधना है।