आजादी विशेष :: क्रांतिकारी गिरीश लाल, तिरंगा लहराने के लिए जिन्होंने दिया बलिदान
Aug 6, 2023, 10:40 IST
कोलकाता, 6 अगस्त। अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़ी मां भारती को आजादी दिलाने के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों की आजादी के प्रति दीवानगी के किस्सों से इतिहास बहुत विशाल है। अब जबकि आजादी के उत्सव की तैयारियों पूरे देश में शुरू हो गई है। तब हम ऐसे गुमनाम क्रांतिकारियों की दस्तां पाठकों के समक्ष लाने की प्रतिबद्धता के तहत आज हम बात करेंगे बंगाल के लाल गिरीश लाल महतो की। अगस्त क्रांति के बलिदानियों में वह भी शामिल थे। इनकी बहादुरी और रणनीति ऐसी थी कि अंग्रेजी सैनिकों के हौसले पस्त हो गए थे। थाने पर हुए हमले के बाद पुरूलिया के अंग्रेजी पुलिस मुख्यालय में लहर रहा अंग्रेजी झंडा उतार कर जला दिया गया था और वहां तिरंगा लहराने लगा था। इसके लिए 30 सितंबर 1942 को मान बाजार थाने पर क्रांतिकारियों ने हमला किया था और इस दौरान पुलिस फायरिंग में अंग्रेजों से जुझते हुए गिरीश लाल मातृभूमि के लिए बलिदान हो गए थे। हालांकि इतिहास में इनका नाम आपने शायद ही कभी सुना होगा। इतिहास में इनकी गुमनामी ऐसी है कि इनकी एक भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है।
इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा बताते हैं कि गिरीश लाल महतो का जन्म पुरुलिया में हुआ था जो अंग्रेजी शासन के समय बिहार प्रांत के मानभूम जिले के अंतर्गत आता था। उस समय पुरुलिया एक अनुमंडल था लेकिन आजादी के बाद नवंबर 1956 में इसे जिला बनाकर पश्चिम बंगाल में शामिल कर दिया गया था।
बिहार से निकले झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरहद पर स्थित वर्तमान पुरुलिया जिला अंग्रेजी हुकूमत के समय देशभक्तों का केंद्र बिंदु था। पूरे देश के साथ यहां भी क्रांतिकारियों ने आजादी की राष्ट्रव्यापी ज्वाला में अपने अमूल्य जीवन को होम कर राष्ट्रीयता की मिसाल रखी थी। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों में गिरीश लाल भी शामिल थे। अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए 1942 में जो अगस्त क्रांति हुई उसमें कांग्रेस का नरम दल तो बापू के साथ अहिंसक आंदोलन में शामिल था लेकिन गरम दल क्रांतिकारियों के साथ था। उस समय मानभूम में कांग्रेस के बड़े नेता थे विभूति भूषण दासगुप्ता। वह जिला कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्हें किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज पुलिस महकमा व्यग्र हो उठा था। लेकिन अंग्रेजों की पूरी रणनीति को वह चकमा देते रहे जिससे बौखलाई ब्रिटिश हुकूमत ने 16 अगस्त 1942 को मानभूम सदर अनुमंडल के सभी 11 कांग्रेस कार्यालयों पर कब्जा कर लिया था। तब बिभूति भूषण ने जोशीले क्रांतिकारी गिरीश लाल महतो को अंग्रेजों को सबक सिखाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। बिभूति भूषण के अलावा कांग्रेस के तीन राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं- अशोक नाथ चौधरी, समरेंद्र मोहन रॉय और सुशील चंद्र दास गुप्ता को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद क्रांतिकारियों ने इन्हें रिहा कराने के लिए योजना बनाई। इसके लिए "मुक्ति" नाम के एक बांग्ला क्रांतिकारी साप्ताहिक पत्र के संपादक वीर रंगाचार्य लगातार लेख लिखकर क्रांतिकारियों को उत्साहित कर रहे थे। इसके चलते अंग्रेजों ने उन्हें भी जेल भेज दिया।
अब गिरीश लाल महतो पर क्रांतिकारियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से जिले के सभी क्रांतिकारियों को एकजुट किया और 17 अगस्त 1942 को पुरुलिया नगर की सड़क और कचहरी प्रांगण में विरोध जुलूस निकाला गया। इसमें इतनी अधिक संख्या में ग्रामीण शामिल हुए कि अंग्रेजी हुकूमत घबरा गई। मानभूम जिले के उपायुक्त ने उसी रात शहर में कर्फ्यू लागू कर दिया। इन तमाम प्रतिबंधों के बावजूद गिरीश लाल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का हौसला बुलंद रहा और लगातार छोटे-छोटे आंदोलन होते रहे। विश्वविद्यालयों में गिरीश लाल के आह्वान पर छात्रों ने हड़ताल की शुरुआत कर दी। मानभूम के विक्टोरिया इंस्टीट्यूशन, जिसकी शुरुआत अंग्रेजों ने ही की थी, वहां भी पढ़ने वाले भारतीय छात्रों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने हर कीमत पर आंदोलन को दबाने की शुरुआत कर दी। हड़ताल पर गए छात्रों पर तमाम तरह से अत्याचार किए जाने लगे। उन्हें पकड़कर पीटा जाता था और जेल में ठूंस दिया जाता था। बिना किसी मुकदमा उन्हें हवालात में रखकर अत्याचार किया जाने लगा।
अंग्रेजी पुलिस और प्रशासन के इस अत्याचार से आक्रोशित गिरीश लाल ने मान बाजार थाना, जो उस समय मानभूम का मुख्यालय हुआ करता था, पर कब्जा कर अंग्रेजों के अस्त्र-शस्त्र लूटने और उन्हीं पर हमला करने की योजना बनाई। इसके लिए अपने कई साथियों की मदद उन्होंने ली। 30 सितंबर, 1942 को सैकड़ों की संख्या में ग्रामीणों को साथ लेकर क्रांतिकारियों ने मान बाजार पुलिस थाना पर तिरंगा लहराने के लिए चढ़ाई कर दी। इससे जिला पुलिस काफी घबरा गई थी और आसपास के जिलों से अंग्रेजी सैनिकों को तुरंत थाना पहुंचने का हुक्म दिया गया। उधर गिरीश लाल ने रणनीति बनाई और सड़कों को जोड़ने वाली पुलिया तथा कई जगह सड़कों को उखाड़ कर पेड़ आदि के जरिए अवरोध डाल दिया गए। इसकी वजह से अंग्रेजी सैनिकों को पहुंचने में काफी देर हुई और इधर क्रांतिकारियों ने थाने पर चढ़ाई कर हमले शुरू कर दिए। थाने पर लहरा रहे अंग्रेजी ध्वज को उतार कर जला दिया गया और तिरंगा लहरा दिया गया था।
वहां मौजूद अंग्रेजी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी। दोनों तरफ से हुए मुठभेड़ में गिरीश लाल महतो बुरी तरह से जख्मी हो गए थे। लहूलुहान हालत में वहां मौजूद अंग्रेज इंस्पेक्टर से उन्होंने कहा था, "यह देश हमारा है और हम अब नहीं चाहते हैं तो तुम लोगों को जाना ही होगा। नहीं जाओगे तो ऐसे ही हमले होंगे।" गंभीर रूप से घायल अवस्था में उन्हें पुरुलिया अस्पताल में ले जाकर भर्ती किया गया था जहां करीब एक महीने तक इलाज चला लेकिन अक्टूबर माह में उन्होंने दम तोड़ दिया।
इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा बताते हैं कि किस तारीख को उनके प्राण पखेरू उड़े इसके पुख्ता साक्ष्य नहीं मिलते हैं लेकिन सितंबर में घायल होने के बाद अक्टूबर 1942 में हीं उन्होंने मां भारती पर अपना जीवन सुमन समर्पित किया था। थाने पर हमले की इस घटना में गिरीश लाल के साथ हेम महतो भी थे, जो बुरी तरह से घायल हुए थे। हालांकि वह बच निकले थे और बाद में क्रांति की मशाल जलाए रखी। थाने पर हमले के बाद अंग्रेज पुलिस इतनी घबरा गई थी कि यहां क्रांतिकारियों से उसके बाद कभी भी बर्बरता नहीं हुई। इसके भी रिकॉर्ड मिलते हैं कि इस थाने में तैनाती से अंग्रेज़ अधिकारी हिचकिचाते थे।
इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा बताते हैं कि गिरीश लाल महतो का जन्म पुरुलिया में हुआ था जो अंग्रेजी शासन के समय बिहार प्रांत के मानभूम जिले के अंतर्गत आता था। उस समय पुरुलिया एक अनुमंडल था लेकिन आजादी के बाद नवंबर 1956 में इसे जिला बनाकर पश्चिम बंगाल में शामिल कर दिया गया था।
बिहार से निकले झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरहद पर स्थित वर्तमान पुरुलिया जिला अंग्रेजी हुकूमत के समय देशभक्तों का केंद्र बिंदु था। पूरे देश के साथ यहां भी क्रांतिकारियों ने आजादी की राष्ट्रव्यापी ज्वाला में अपने अमूल्य जीवन को होम कर राष्ट्रीयता की मिसाल रखी थी। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों में गिरीश लाल भी शामिल थे। अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए 1942 में जो अगस्त क्रांति हुई उसमें कांग्रेस का नरम दल तो बापू के साथ अहिंसक आंदोलन में शामिल था लेकिन गरम दल क्रांतिकारियों के साथ था। उस समय मानभूम में कांग्रेस के बड़े नेता थे विभूति भूषण दासगुप्ता। वह जिला कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्हें किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज पुलिस महकमा व्यग्र हो उठा था। लेकिन अंग्रेजों की पूरी रणनीति को वह चकमा देते रहे जिससे बौखलाई ब्रिटिश हुकूमत ने 16 अगस्त 1942 को मानभूम सदर अनुमंडल के सभी 11 कांग्रेस कार्यालयों पर कब्जा कर लिया था। तब बिभूति भूषण ने जोशीले क्रांतिकारी गिरीश लाल महतो को अंग्रेजों को सबक सिखाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। बिभूति भूषण के अलावा कांग्रेस के तीन राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं- अशोक नाथ चौधरी, समरेंद्र मोहन रॉय और सुशील चंद्र दास गुप्ता को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद क्रांतिकारियों ने इन्हें रिहा कराने के लिए योजना बनाई। इसके लिए "मुक्ति" नाम के एक बांग्ला क्रांतिकारी साप्ताहिक पत्र के संपादक वीर रंगाचार्य लगातार लेख लिखकर क्रांतिकारियों को उत्साहित कर रहे थे। इसके चलते अंग्रेजों ने उन्हें भी जेल भेज दिया।
अब गिरीश लाल महतो पर क्रांतिकारियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से जिले के सभी क्रांतिकारियों को एकजुट किया और 17 अगस्त 1942 को पुरुलिया नगर की सड़क और कचहरी प्रांगण में विरोध जुलूस निकाला गया। इसमें इतनी अधिक संख्या में ग्रामीण शामिल हुए कि अंग्रेजी हुकूमत घबरा गई। मानभूम जिले के उपायुक्त ने उसी रात शहर में कर्फ्यू लागू कर दिया। इन तमाम प्रतिबंधों के बावजूद गिरीश लाल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का हौसला बुलंद रहा और लगातार छोटे-छोटे आंदोलन होते रहे। विश्वविद्यालयों में गिरीश लाल के आह्वान पर छात्रों ने हड़ताल की शुरुआत कर दी। मानभूम के विक्टोरिया इंस्टीट्यूशन, जिसकी शुरुआत अंग्रेजों ने ही की थी, वहां भी पढ़ने वाले भारतीय छात्रों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने हर कीमत पर आंदोलन को दबाने की शुरुआत कर दी। हड़ताल पर गए छात्रों पर तमाम तरह से अत्याचार किए जाने लगे। उन्हें पकड़कर पीटा जाता था और जेल में ठूंस दिया जाता था। बिना किसी मुकदमा उन्हें हवालात में रखकर अत्याचार किया जाने लगा।
अंग्रेजी पुलिस और प्रशासन के इस अत्याचार से आक्रोशित गिरीश लाल ने मान बाजार थाना, जो उस समय मानभूम का मुख्यालय हुआ करता था, पर कब्जा कर अंग्रेजों के अस्त्र-शस्त्र लूटने और उन्हीं पर हमला करने की योजना बनाई। इसके लिए अपने कई साथियों की मदद उन्होंने ली। 30 सितंबर, 1942 को सैकड़ों की संख्या में ग्रामीणों को साथ लेकर क्रांतिकारियों ने मान बाजार पुलिस थाना पर तिरंगा लहराने के लिए चढ़ाई कर दी। इससे जिला पुलिस काफी घबरा गई थी और आसपास के जिलों से अंग्रेजी सैनिकों को तुरंत थाना पहुंचने का हुक्म दिया गया। उधर गिरीश लाल ने रणनीति बनाई और सड़कों को जोड़ने वाली पुलिया तथा कई जगह सड़कों को उखाड़ कर पेड़ आदि के जरिए अवरोध डाल दिया गए। इसकी वजह से अंग्रेजी सैनिकों को पहुंचने में काफी देर हुई और इधर क्रांतिकारियों ने थाने पर चढ़ाई कर हमले शुरू कर दिए। थाने पर लहरा रहे अंग्रेजी ध्वज को उतार कर जला दिया गया और तिरंगा लहरा दिया गया था।
वहां मौजूद अंग्रेजी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी। दोनों तरफ से हुए मुठभेड़ में गिरीश लाल महतो बुरी तरह से जख्मी हो गए थे। लहूलुहान हालत में वहां मौजूद अंग्रेज इंस्पेक्टर से उन्होंने कहा था, "यह देश हमारा है और हम अब नहीं चाहते हैं तो तुम लोगों को जाना ही होगा। नहीं जाओगे तो ऐसे ही हमले होंगे।" गंभीर रूप से घायल अवस्था में उन्हें पुरुलिया अस्पताल में ले जाकर भर्ती किया गया था जहां करीब एक महीने तक इलाज चला लेकिन अक्टूबर माह में उन्होंने दम तोड़ दिया।
इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा बताते हैं कि किस तारीख को उनके प्राण पखेरू उड़े इसके पुख्ता साक्ष्य नहीं मिलते हैं लेकिन सितंबर में घायल होने के बाद अक्टूबर 1942 में हीं उन्होंने मां भारती पर अपना जीवन सुमन समर्पित किया था। थाने पर हमले की इस घटना में गिरीश लाल के साथ हेम महतो भी थे, जो बुरी तरह से घायल हुए थे। हालांकि वह बच निकले थे और बाद में क्रांति की मशाल जलाए रखी। थाने पर हमले के बाद अंग्रेज पुलिस इतनी घबरा गई थी कि यहां क्रांतिकारियों से उसके बाद कभी भी बर्बरता नहीं हुई। इसके भी रिकॉर्ड मिलते हैं कि इस थाने में तैनाती से अंग्रेज़ अधिकारी हिचकिचाते थे।