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सहमति से संबंधों पर नए नैरेटिव के निहितार्थ

 
 सहमति से संबंधों पर नए नैरेटिव के निहितार्थ
डॉ. अजय खेमरिया

देश में हर साल बाल विवाह होते हैं और इसे रोकने के लिए सख्त कानून भी बना हुआ। क्या बाल विवाह की संख्या को देखते हुए देश में बेटियों के विवाह की आयु 18 से घटाकर 16 कर दी जानी चाहिये? लेकिन सरकार तो विवाह की आयु अब बढ़ा कर 21 करने जा रही है ताकि देश की बेटियां शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से विवाह एवं परिवार के लिए तुलनात्मक रूप से उपयुक्त रहे। एक पक्ष लड़के और लड़कियों की आयु में एकरूपता का भी है क्योंकि अभी विवाह के लिए लड़के की आयु 21 साल निर्धारित है। इस कानून में एक देशज तत्व यह भी है कि हमारे यहां यौन संबन्धों के लिए आयु और सामाजिकी की वैधता भी विवाह संस्कार से सीधी और गहरी जुड़ी है।

भारत के ज्ञात इतिहास से आज के चरम आधुनिक दौर तक लोक जीवन में तमाम बुराइयों के बावजूद यह कदापि स्वीकार नहीं किया गया है कि भारतीय परिवार पश्चिम की तरह 16 साल की आयु वाले अपने बच्चों को यौन उन्मुक्तता की अनुमति दें। इसीलिए समाज से लेकर सरकार तक इस मामले में एक तरह की सकारात्मक पाबंदियां लगाते रहे हैं।दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार केस के बाद देश भर के बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए पॉक्सो कानून बनाकर यह निर्धारित किया गया कि 18 साल की उम्र से पहले शारीरिक संबंध बनाना किसी भी स्थिति में अपराध की श्रेणी में ही आएगा। स्वाभाविक भी है कि जब वयस्कता, विवाह, वोट, वाहन चलाने के लिए 18 साल की आयु निर्धारित है तो यौन संबन्धों के मामलों में इसे कम करके 16 साल क्यों किया जाए? यह बुनियादी सवाल इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में पॉक्सो कानून से जुड़े प्रकरणों में दोषसिद्धि के आंकड़ों को आधार बनाकर संसद से इस कानून में बदलाव का सुझाव सार्वजनिक रूप से दिया है। इसे लेकर देश के उस अभिजन वर्ग में बड़ा विमर्श भी इन दिनों खड़ा हुआ है जो मूलतः अंग्रेजी में सोचता है और उसकी दृष्टि सेक्युलर होकर एक बड़े दबाव समूह के रूप में विधायिका, कार्यपालिका और यहां तक न्यायपालिका को भी नीतिगत रूप से प्रभावित करती रही है।

हालांकि मौजूदा केंद्र सरकार की ओर से महिला बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पिछले ही सत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकार सहमति से यौन रिश्तों की आयु सीमा 18 से घटाकर 16 साल करने के किसी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगी। बुनियादी रूप से इस विषय को समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि को जानना भी जरूरी है। जो भारतीय व्यवस्था में एनजीओ, सेक्युलरिज्म, उदारता और प्रगतिशीलता की आड़ में समाज के सांस्कृतिक मानबिन्दुओं को दशकों से खंडित, प्रदूषित और ध्वस्त करने में लगा रहा है। सहमति से शारीरिक रिश्तों की आयु सीमा 16 करने का नैरेटिव भी इसी का हिस्सा है। दावा किया जा रहा है कि बच्चों को भी 16 साल में रोमांटिक प्रेम की आजादी के साथ जीने का अधिकार होना चाहिए। पॉक्सो कानून की सख्ती के कारण भारत में 16 से 18 साल के युवाओं के रोमांटिक रिश्तों का अपराधीकरण हो रहा है।

भारत में बाल विवाह, बालिकाओं में एनीमिया और पोषण की कमी से लेकर अन्य स्वास्थ्यगत मामलों पर काम करने का दावा करने वाला यूनिसेफ जैसा अंतरराष्ट्रीय एनजीओ इस मुद्दे पर बहस और दबाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। अपने एक पार्टनर संस्थान इन्फ़ोल्ड प्रोएक्टिव हेल्थ ट्रस्ट की एक सामाजिक अध्ययन रिपोर्ट को यूनिसेफ ने पिछले महीने सार्वजनिक करते हुए इस बहस को खड़ा करने की कोशिश की है। इस रिसर्च में यूनिसेफ और इन्फ़ोल्ड ने यह बताया है कि पॉक्सो के तहत विचाराधीन हर चार में से एक मामला रोमांटिक प्रेम का है और पीड़ित लड़की 16 से 18 साल के बीच की है। इसलिए आरोपी लड़कों के प्रेमालाप के हक को सुरक्षित रखने के लिए पॉक्सो कानून में बुनियादी बदलाव किया जाना चाहिए। असम, महाराष्ट्र एवं बंगाल के 7064 केस इस अध्ययन में कवर करने का दावा किया गया है। यह समझना होगा भारत की जीवन संस्कृति 25 साल तक ब्रह्मचर्य आश्रम की वकालत करती है और 1925 में महात्मा गांधी ने बाकायदा यंग इंडिया में लेख लिखकर यह कहा था कि मैं 25 साल की आयु की महिला को ही विवाह संबन्धों के लिए योग्य स्वीकार करूंगा।

वस्तुतः भारतीय लोकजीवन, इसकी संयमित और कर्तव्यबोध केंद्रित जीवनचर्या के विरुद्ध पिछले 70 साल से एक संगठित तंत्र पूरी व्यवस्था पर हावी होकर काम करता रहा है। ताजा नैरेटिव इसी इकोसिस्टम का हिस्सा भर है। यूनिसेफ और इन्फ़ोल्ड के इस रिसर्च के सामने आते ही चेन्नई में पिछले दिनों पॉक्सो कानून पर एक कार्यशाला आयोजित की गई।न्यायालय से दोषसिद्धि के आंकड़ों को इस दलील के साथ रोमांटिक प्रेम को तार्किक बनाने की कोशिशें की गई। इस कार्यशाला में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी मौजूद रहे। बाकायदा प्रस्ताव पारित कर पाक्सो एक्ट के प्रावधानों को एक तरह से नकारने का काम किया गया। कार्यशाला के तत्काल बाद 3 दिसम्बर को तमिलनाडु के पुलिस महानिदेशक ने एक परिपत्र जारी कर दिया कि राज्य में पॉक्सो में दर्ज प्रकरणों में आरोपियों के विरुद्ध गिरफ्तारी और नकारात्मक आरोप पत्र से बचा जाए। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने इस परिपत्र के विरुद्ध एक नोटिस हाल में राज्य सरकार को जारी किया है। इससे पहले 2019 में मद्रास हाईकोर्ट अपने निर्णय में 18 से कम आयु में सेक्स संबन्धों को अप्राकृतिक या प्रतिकूल मानने से इनकार कर चुका था।

चेन्नई से निकली बात असल में नई नहीं है, पिछले कुछ सालों में देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में ऐसी याचिकाओं की संख्या बढ़ी है जो पॉक्सो एक्ट के आयु से जुड़े प्रावधान को इसलिए हटवाना चाहते हैं क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए परेशानी का कारण बन गया है। मुस्लिम लॉ कहता है कि बालिका जैसे ही रजस्वला होगी वह विवाह के योग्य मानी जायेगी। कभी यह आयु 15 साल थी लेकिन आज बदलती जीवनशैली में इसे 12 भी माना जाता है। किसी बालिका की इस आयु को सुरक्षित और जबावदेह यौन संबंधों के लिए क्या कोई समाज खुद को सभ्य और सुसंस्कृत कह सकता है? सवाल यह भी है कि सहमति से सेक्स की आयु 16 करने के दायरे में कौन-सी भारतीय लड़कियाँ आएंगी। क्या हमारे समाज में यौन रिश्ते कभी इस उन्मुक्तता के स्तर पर रहे है जहां परिवार में 16 साल के बाद बेटियों को यौन संबन्धों के लिए खुली आजादी रही हो। इस नैरेटिव के पैरोकार क्या कभी अपने ही परिवेश और संरक्षण में रहने वाले बच्चों के लिए इस रोमांटिक रिश्ते को सहर्ष भाव से स्वीकार करने की स्थिति में हो सकते हैं?

असल में यह नैरेटिव उन लोगों के द्वारा खड़ा किया जा रहा है जो प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय परम्पराओं को हिकारत की नजरों से देखते रहे हैं। नारीवाद का मतलब ही जिनके लिए हिन्दू जीवन शैली को खारिज करना है। यह ठीक वैसा ही दुराग्रही आख्यान है जो शाहबानो पर चुप रहता है या ट्रिपल तलाक में सत्ता का फासीवादी एवं साम्प्रदायिक चेहरा तलाश लेता है। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और लव जिहाद के आरोपियों को एक विधिक गलियारा उपलब्ध कराना भी इस आख्यान का मूल मन्तव्य है। तथ्य यह है कि देश में यूनिसेफ जैसे संगठन एक प्रायोजित एजेंडे पर अपने पार्टनर संगठनों के साथ भारत की सामाजिकी और संस्कृति के विरुद्ध काम करते रहते हैं।

इंडिपेंडेंट थाट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मदन बी लोकूर एवं दीपक गुप्ता की पीठ यह स्पष्ट कह चुकी है कि "उनकी राय में 18 साल से कम आयु की लड़की के साथ यौन संबन्ध बनाना बलात्कार है, चाहे वह विवाहित हो या नहीं।".केरल और कर्नाटक हाईकोर्ट की राय भी पाक्सो के मामले में यही रही है कि पॉक्सो कानून देश के सभी बच्चों पर लागू होगा जो 18 साल से पहले यौन संबन्धों की अनुमति नहीं देता है।

यहां सवाल उठाया जा सकता है कि पॉक्सो में रोमांटिक प्रेम और विवाह अलग अलग विषय है लेकिन बुनियादी रूप से भारत में विवाह ही यौन संबंधों का आधार है इसलिए जब गांधी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक 18 साल से पहले यौन रिश्तों की अनुमति नहीं देते हैं तो यूनिसेफ और इन्फ़ोल्ड जैसे दबाव समूह किस समाजेत्तर यौन आजादी की वकालत कर रहे हैं। एक दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर यह मान लिया जाए कि रोमांटिक प्यार के युवा आरोपियों का अपराधीकरण हो रहा है तो यह निष्कर्ष सच नहीं है क्योंकि भारत में किशोर न्याय अधिनियम भी लागू है जो 18 साल तक के बच्चों के मामले में निर्दोषिता के सिद्धांत पर काम करता है और ऐसे सभी नाबालिगों को सम्मानजनक सुधार का रास्ता उपलब्ध कराता है।

वैसे पाक्सो को लेकर यूनिसेफ प्रायोजित यह रिसर्च इसलिए भी प्रामाणिक नहीं है क्योंकि डेटा एविडेंस फॉर जस्टिस रिफॉर्म के सहयोग से विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा हालिया जारी एक रिपोर्ट "ए डिकोड ऑफ पॉक्सो" में पिछले दस सालों में दर्ज 4 लाख प्रकरणों के अध्ययन में रोमांटिक लव यानी सहमति से सेक्स संबन्धों से जुड़े आरोपियों का आंकड़ा 20 फीसदी से भी कम बताया गया है। जाहिर है मामला थिंक टैंकों की प्रामाणिकता और उनके हिडन एजेंडे से भी सीधा जुड़ा है। इंग्लैंड में लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपकल मेडिसिन ने कुछ समय पूर्व जारी एक शोध में बताया था कि 40 फीसद लड़कियां एवं 26 फीसदी लड़कों ने यह स्वीकार किया है कि उन्होंने 16 साल में सेक्स संबन्ध बनाकर एक भूल की थी। यह उस इंग्लैंड का मिजाज है जहां शारीरिक संबन्धों के लिये 16 साल आयु को मान्यता मिली है। भारत में युवा यौन इच्छाओं के अपराधीकरण के तर्कों को स्थानीय परिवेश, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिकी के संदर्भ में समझने की आवश्यकता सभी स्तरों पर है।

(लेखक जुबेनाइल जस्टिस बोर्ड के सदस्य हैं।)