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आज के माहौल में बचपन को बाजार से सुरक्षित करने की जरूरत

 
आज के माहौल में बचपन को बाजार से सुरक्षित करने की जरूरत​​​​​​​ 

विजय गर्ग 

संस्कृतियां संस्कारों से बनती हैं, उन्हीं से पलकर पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है और स्मृतियों पर अपने महल खड़े करती है। जिस रसायन से हमारी स्मृतियां बनीं, उन्हीं से अपने बच्चों को महरूम करके आखिर कौन-सा भविष्य उन्हें हम देने की कोशिश कर रहें हैं? जिन बच्चों के पास कोई स्थानीय स्वाद तक न होगा, उनकी स्मृतियों में भी वस्तुनिष्ठता आ जाए, तब भी कोई आश्चर्य नहीं। अफसोस तो इसका होना चाहिए कि इन सबके जिम्मेदार उनके सबसे प्रिय लोग होंगे!

करीब दो दशक वर्ष पहले गांवों में आमतौर पर संयुक्त परिवार मिल जाते थे। परिवारों में हमउम्र कई बच्चे होते। बहुत सारे घरों में खानपान के मामले में विशेष रूप से नाश्ते जैसी कोई धारणा नहीं थी, लेकिन दिन में तीन बार खाना एक नियम की तरह था। कोई कहीं भी जाए, वक्त कुछ भी हो, हमेशा खाना खाकर ही जाते थे। ‘बाहर खा लेंगे’ जैसी संभावनाओं पर वहां विचार नहीं होता था। बच्चे गर्मी के दिनों में सात बजे सुबह विद्यालय जाते, तब तक खाना तैयार नहीं होने की वजह से रात का बचा खाना नाश्ते के तौर पर खाते। आधी छुट्टी में सुबह का खाना, फिर दोपहर में खाना खाया जाता। सर्दी में जब विद्यालय का समय साढ़े दस बजे सुबह से होता और साढ़े चार बजे पूरी छुट्टी के बाद घर आते तो बच्चे बहुत थके होते।

दादी की रोटी की जगह ब्रेड ने ले ली

हालांकि उस थकान के बावजूद उनकी जीवंतता कायम रहती। तब उनकी दादी सबके लिए चाय और लाल मिर्च की चटनी बनाकर तैयार रखतीं। जैसे ही वे पहुंचते, वे सुबह वाली रोटी को चूल्हे में अंगारों पर सेंककर उस पर चटनी लगाकर चाय के साथ खाने को देतीं और बगैर कोई सवाल-जवाब किए बच्चे उसे चट कर जाते। दरअसल, उस दौर में गांवों में ब्रेड या डबल रोटी का नाम उतना प्रचलित नहीं हुआ था। बच्चे किसी के मुंह से उसके बारे में सुनते तो बस कल्पना ही करते, क्योंकि तब आमतौर पर ऐसी चीजों का ग्रामीण किसानी परिवार में प्रवेश भी शायद ही कहीं था। आजकल बच्चों को हर चीज के साथ बाजार से लाए गए बोतलबंद चटनी लगाकर खाते देखकर ये स्मृतियां बहुत दूर और किसी हद तक काल्पनिक लगने लगती हैं।

खाने के नाम का जो अनुशासन था, वह खत्म हो गया

अब खाने के नाम का जो अनुशासन था, वह खत्म हो गया है। गांव में तैयार या रेडीमेड नाश्ते जैसी कोई धारणा नहीं थी। दूध, छाछ, दही, राबड़ी, चने, मूंग की दाल, बेसन-प्याज की सब्जी, गर्मी में कच्चे प्याज या सूखे गुड़ के साथ रोटी, खाने के तय कायदों में यही सब था। स्वाद जमीन से जुड़ा था, खेतों में देशी तरीके से उपजे अन्न और सब्जियों का अपना स्वाद था। बाजार की चीजें जरूरतें पूरी करने के लिए लाई जाती थीं, न कि शौकिया, दिखावे या मन बहलाने के लिए। मगर फिर चीजें धीरे-धीरे नहीं, बल्कि आक्रामक तरीके से बदलीं।

मौजूदा इंटरनेट पर आधारित युग में बाजार का हर तरफ प्रसार हुआ। ऐसे में खाने की थाली का भी आखिर क्या बचना था! अब बच्चों के खाने-पीने के मामले में गांवों ने शहरों को पीछे छोड़ दिया है। आजकल गांव में भी ऐसे बच्चों को खोजना मुश्किल है, जिनका मन दही खाने से नहीं भरता हो या दूध जिनका प्रिय हो। मां-बाप ने आधुनिकता के ढंग के तौर पर अन्य सब जिम्मेदारियों को एक तरफ रख परवरिश के इस पक्ष को इतनी गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है कि हैरानी होती है। वे अपने बच्चों को अच्छे विचार दें या न दें, बाजार की गुलामी और अपने दिखावे गुण अवश्य देते जा रहे हैं।

मां-बाप यह कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं कि हमारा बच्चा तो रोटी को मुंह ही नहीं लगाता या आजकल के बच्चे कुछ खाते ही नहीं हैं। इन्हीं बच्चों के बारे में वे यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि डिब्बाबंद चीजें उनको भले ही दिन में सौ रुपए की ही क्यों न खिला दी जाए, खा लेंगे। सवाल यह है कि बच्चे क्यों नहीं खाते, इस बारे में कोई भी मां-बाप क्या कभी सोचते हैं। दूसरा यह कि बच्चे सचमुच नहीं खाते या हम उन्हें खिलाना ही नहीं चाहते, इस महत्त्वपूर्ण सवाल को पूरी तरह अनदेखा किया गया है।

दरअसल, बच्चों को हर तरह की सुविधा देने के उन्माद में हम न केवल उन्हें अपनी जड़ों से काट रहे हैं, बल्कि उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ भी कर रहे हैं। हमने आधुनिकता और सुविधाओं की गलत परिभाषा गढ़ ली है। हमारे संस्कारों में हमारी स्मृतियां हैं और हमें केवल उन्हीं कमियों का ध्यान है, जो हमारे बचपन में रहीं। इसलिए हम उनकी पूर्ति अपनी संतानों में कर अपनी स्मृतियों को तुष्ट करना चाह रहे हैं। लेकिन यह शायद गलत रास्ता है।

हर समय और पीढ़ी की अपनी तरह की जरूरतें होती हैं। कल हमारे लिए जो सपना था, वह आज के बच्चों के लिए विचित्र यथार्थ है। हमें उनके बचपन को बाजार से सुरक्षित करने की जरूरत है। इस बात की जरूरत है कि जब तक संभव हो, उन्हें उपभोक्ता की बजाय बच्चे के रूप में बनाए रखा जा सके। उन्हें वस्तु नहीं, विचार, विवेक और स्पष्ट दृष्टि देने की जरूरत है।

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब