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कितना अच्छा हो, सब करें सबकी चिंता

 
कितना अच्छा हो, सब करें सबकी चिंता
कुलभूषण उपमन्यु

अनादिकाल से मनुष्य समाज के क्रमिक विकास का मूल आधार ज्ञान ही रहा है। जैसे-जैसे भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक ज्ञान का विस्तार होता गया, मनुष्य समाज उत्तरोत्तर विकास की सीढ़ियां चढ़ता गया। ज्ञान का अर्थ हुआ, जानना। अर्थात उस विषय की सच्चाई को जानना। जब हम स्पष्टता से किसी विषय को जान लेते हैं तो उस विषय में विश्वास के साथ निर्णय ले कर कार्य कर सकते हैं। पूर्ण जानकारी पर आधारित कार्य ही विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। आज का कार्य कल आने वाले विकास का कारण बन जाता है और इस तरह कार्य-कारण का ऐसा चक्र चल निकलता है जिससे विकास की गाड़ी सतत गतिशील रहती है। किन्तु किसी भी विषय की वास्तविक सच्ची जानकारी के लिए निष्पक्ष मन की जरूरत होती है। जितने भी शोध कार्य किए जाते हैं उनका परिणाम सच के नजदीक तभी आता है जब वे निष्पक्ष मन द्वारा संचालित होते हैं। भौतिक ज्ञान का क्षेत्र इसे समझने के लिए सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है।

यदि आपका मन किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है तो आपके द्वारा प्राप्त ज्ञान सत्य के नजदीक नहीं होगा जिस पर आधारित कार्य में आप सफल नहीं हो सकते और विफलता आपको दोबारा सोचने पर बाध्य कर देती है और आप नए सिरे से विषय का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। यदि आप रोगी का इलाज कर रहे हैं तो रोग नियंत्रित नहीं होगा, यदि कोई भी अन्य भौतिक कार्य कर रहे हैं तो वह सही नहीं होगा। आप दोबारा गलती सुधार कर ही आगे बढ़ सकते हैं, और इसके लिए जितना भी समय लगे आपको इंतजार करना पड़ेगा।

तमाम वैज्ञानिक विकास इसी स्तर के ज्ञान के क्रमिक विकास पर निर्भर रहता हुआ आगे बढ़ा है। इसी तरह सामाजिक ज्ञान के आधार पर ही राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक विकास का सफर तय हुआ है। मनुष्य समाज चिरकाल तक सुखी, शांत और समृद्ध जीवन जीने की इच्छा रखता है। इसके लिए किसी को ज्यादा सिखाने की भी जरूरत नहीं होती, यह उसकी स्वाभाविक वृत्ति ही है। किन्तु ऐसा जीवन जीने के लिए प्रयास दो तरह से किए जा सकते हैं, एक तो केवल अपने लिए व्यवस्था बनाने के लिए संघर्ष करने का मार्ग है। इस रास्ते पर चल कर हमें दूसरे से छीनने में भी कोई दोष नहीं दिखाई देगा। तो हम छीना झपटी वाला समाज बना लेंगे और सुख-शांति के बदले दुःख और अशांति ही पैदा कर लेंगे। और हमारी समृद्धि भी एक-दूसरे के लिए दुःख और अशांति पैदा करने के साधन इकठ्ठा करने में ही खप जाएगी।

तमाम दावों और प्रतिदावों के बाबजूद अभी तक मनुष्य समाज वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से अर्जित शक्ति का एक बड़ा भाग इसी दृष्टि से प्रयोग कर रहा है। इसीलिए दुनिया खेमों में बंटी है। रोज बड़े-बड़े हथियार तैयार हो रहे हैं। दूसरा कर रहा है इसलिए हम न करें तो पिट जाएंगे और गुलाम होने का खतरा मंडराने लगेगा। जिन देशों ने गुलामी झेली है वे स्वाभाविक तौर पर इस विषय में अधिक संवेदनशील हैं और हथियारों की दौड़ में अग्रणी होना चाहते हैं। वैश्विक स्तर पर सामूहिक सोच विकसित करके ही इस दिशा में कोई पहल करने के बारे में सोचा जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ हालांकि इस तरह की वैश्विक कल्याणकारी कुछ पहल कर भी रहा है किन्तु सशस्त्र संघर्षों को रोकने के बारे में असमर्थ ही प्रतीत होता है। इसलिए किसी देश को भी अंतरराष्ट्रीय संघर्ष की दौड़ से रोकने का कोई तर्क बचता नहीं है। क्या ही अच्छा हो यदि धीरे-धीरे सभी देशों की सेनाओं को संयुक्त राष्ट्रसंघ के हवाले करके घटाते-घटाते सीमित संख्या तक लाया जाए और देशों को अपनी-अपनी सीमाओं की रक्षा करने के लिए पुलिस ही पर्याप्त हो, यदि कोई देश वैश्विक सहमति से बनी व्यवस्था का उल्लंघन करने की जिद पकड़ ले तो उसके विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना द्वारा ही कार्रवाई की जाए। इससे छोटे से छोटा देश भी सुरक्षित महसूस करेगा और आपसी छीना झपटी वाला समाज धीरे-धीरे सहयोगी समाज में बदलने लगेगा।इससे पूरी दुनिया की चिंता साझा होगी। सुख, शांति समृद्धि सबके हिस्से आ सकेगी। किन्तु इसके लिए हमें चिंतन की दूसरी पद्धति का अनुसरण करना पड़ेगा, जिसमें हम अपने-अपने सुख, शांति और समृद्धि के बजाए सबके लिए सुख शांति और समृद्धि की आशा करते हैं।

हम सब एक-दूसरे को अपने जैसा और बराबर उसी एक ईश्वर की संतान मानते हों। इसके लिए दुनिया के देशों को अपनी आंतरिक व्यवस्था में भी सुधार की पहल करनी पड़ेगी। अपने आध्यात्मिक विश्वासों को वैश्विक सुख शांति समृद्धि के लिए प्रयासशील बनाना पड़ेगा। धर्म, पंथ, जाति, संप्रदाय, में अपनी अपनी पूजा पद्धति को बरकरार रखते हुए किसी दूसरे के धर्म पंथ को अपने समान आदर देना सीखना होगा। इसी सोच पर अपनी राजनीति को भी केन्द्रित करना सीखना होगा। राजनीतिक दलों को दूसरे के दोष दर्शन का ढिंढोरा पीटने के बजाए अपने अंदर सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सतत कार्यशील रहना होगा। जब आंतरिक समरसता सध जाए तो वैश्विक समरसता की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

इस दिशा में आज के हालात सुखद नहीं हैं। हर देश आंतरिक टकराव के भंवर में फंसा है। हमारा देश भी कोई अपवाद नहीं है। हमारा दैनिक राजनीतिक संपर्क कितने घटिया स्तर तक पहुंच रहा है, जिसमें संवाद के लिए निष्पक्षता का अभाव सामने दीखता है, इस स्थिति में हम संवाद की ओर कैसे बढ़ेंगे। छोटी-छोटी बातों पर हम हिंसक होने में देर नहीं लगाते। इस समरसता के मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों को एक ही धरातल पर सोचना चाहिए। प्रतिस्पर्धा विकास के मुद्दों पर हो सकती है, किन्तु समरसता की कीमत पर नहीं। यदि एक देश में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, या अन्य अन्य कोई भी समुदाय आपस में समरस हो कर रह सकते हैं तो पूरी दुनिया में भी रह सकते हैं। इसी विश्वास पर वैश्विक व्यवस्था की दिशा में बढ़ा जा सकता है।

(लेखक, पर्यावरणविद् और सामाजिक चिंतक हैं)।