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टूट रहा परिवार का ताना-बाना, बच्चे भी नहीं रहे बुढ़ापे की लाठी

 
टूट रहा परिवार का ताना-बाना, बच्चे भी नहीं रहे बुढ़ापे की लाठी  
(विशेष-15 मई विश्व परिवार दिवस) 
लखनऊ, 14 मई। कभी जमाना था जब पड़ोसी भी घर के सदस्य की तरह रहते थे। अब जमाना है, घर के सदस्य भी पड़ोसी होने लगे हैं। जिस भारतीय संस्कृति में बच्चों को बुढ़ापे की लाठी कहा जाता था, वही लाठी बुढ़ापे का सहारा नहीं माता-पिता को तकलीफ पहुंचाने का काम करने लगे हैं। हालांकि यह अभी नगण्य है, लेकिन यदि नहीं सुधरे या बच्चों को संस्कृति की शिक्षा नहीं दिये तो आने वाले समय में बुढ़ापे की लाठी टूट जाएगी।

इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि आज प्रदेश के सभी जिलों में वृद्धाश्रम खुल चुके हैं। हर जगह बुजुर्ग रहवासियों की संख्या 50 से अधिक है, जिनकी पूरी व्यवस्था प्रदेश सरकार करती है। अभी पूरे प्रदेश के वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों की संख्या इस समय 5524 है, जबकि इनकी क्षमता 11250 है। इसमें बुजुर्ग महिला और पुरुष दोनों हैं।

कई कारणों से लेना पड़ता है वृद्धाश्रमों का सहारा

हालांकि इसमें बच्चों के साथ विवाद के कारण वृद्धाश्रमों में रहने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। वृद्धाश्रमों का सहारा विभिन्न कारणों से लेना पड़ता है। इस संबंध में पूर्वांचल सोशल डेवलपमेंट सोसाइटी के माध्यम से कौशांबी में वृद्धा आश्रम चला रहे आलोक कुमार राय ने बताया कि कुछ गरीबी तो कुछ वृद्धाश्रमों की ज्यादा सुविधा के कारण भी वृद्धजन यहां आते हैं। यहां आकर सभी जन आपस में दिनभर बात करना और प्रभु का भजन करना, टीवी देखना आदि करते रहते हैं, जिससे उनका मन लगा रहता है। बुजुर्गजन को सबसे ज्यादा बातचीत जरूरी है। उनकी सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है कि उनके पास आकर कोई बैठे। यह सब उन्हें यहां मिल जाता है, लेकिन कुछ घर की प्रताड़ना के कारण भी आते हैं।

बच्चों के रहते हुए पति-पत्नी रह रहे वृद्धाश्रम में

कौशांबी के ही वृद्धाश्रम में पकोढ़ा गांव के सुंदर और सुंदरिया ऐसे हैं, जिनके दो बच्चे हैं। दोनों खेती करते हैं, लेकिन मां-बाप को कोई अपने साथ रखना नहीं चाहता। इस कारण सुंदर और सुंदरिया ने वृद्धाश्रम का सहारा लिया। उनका कहना है कि बुढ़ापे की लाठी ही टूट गयी तो ऐसे में हमारे लिए सहारा यह सरकारी वृद्धाश्रम ही है। यहां सब सुविधाएं ठीक हैं।

हर वृद्धजन चाहता है, कोई आकर उसके साथ बैठे

समाज कल्याण विभाग के उपनिदेशक और प्रदेश के वृद्धाश्रमों के प्रभारी अधिकारी कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि बुजुर्ग होने के बाद सबसे ज्यादा जरूरत होती है, साथ की। हर वृद्धजन चाहते हैं कि उसके साथ कोई आकर बैठे। बात करे। वर्तमान में व्यस्तता अधिक होने के कारण परिवार में यह सुविधाएं नहीं मिल पाती। वृद्धाश्रमों में यह सब सुविधाएं उपलब्ध हैं।

2012 में प्रदेश में बना कानून

उन्होंने बताया कि भारत सरकार 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण कल्याण अधिनियम-2007 लायी। इस अधिनियम को 2012 में अंगीकृत किया गया। इसके बाद राज्य सरकार ने वृद्धों की देख-भाल के लिए व्यवस्था बनाना शुरू किया। आज उप्र के सभी जिलों में 150 बुजुर्गजन के रहने की सुविधा से युक्त वृद्धाश्रम हैं।

संस्कारों पर ध्यान देने की जरूरत

इस संबंध में समाजसेवी अजीत सिंह का कहना है कि हम अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढ़ाने, उनकी सुख-सुविधा का ध्यान दे रहे हैं। पहले संस्कारों पर ध्यान दिया जाता था। हमें जरूरत है, पढ़ाई के साथ ही उनके संस्कारों पर ध्यान देने की। जब हम बाल्यकाल से ही ध्यान देंगे तो बच्चा बड़ा होकर शिक्षित के साथ ही संस्कारवान भी बनेगा।

अर्थ के कारण भूल गये अपना कर्तव्य

वहीं जिला पंचायत विभाग के अधिकारी अजीत विक्रम सिंह का कहना है कि हम अर्थ के भागदौड़ में बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल गये हैं। यही कारण है कि बच्चों में संस्कार नहीं दे पा रहे। आखिर हम खुद अपने बच्चे पर ध्यान नहीं देंगे तो शुल्क पर रखा जाने वाला कोई दूसरा उन्हें संस्कृति का ज्ञान कैसे करा सकता है।