शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-29
लेखक : सुरेन्द्र भाटिया

भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा वर्ष १९९५ में आरंभ किए गए द्वीप महोत्सव का साक्षी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं व मेरे तीन सहयोगी इस समारोह में भाग लेने के लिए पोर्ट ब्लेयर गए। इस यात्रा की वापसी पर एक यात्रा संस्मरण की लड़ी का लेखन मेरे द्वारा किया गया जिसे भारत सरकार के हिंदी निर्देशालय के सहयोग से एक पुस्तक का रुप दिया गया। अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह -देश की मुख्य भूमि से 1200 कि.मी. दूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कुल 572 द्वीप हैं, जिनमें आबादी केवल 38 द्वीपों में ही है। अपने शानदार इतिहास और प्राकृति के बेशकीमती खजाने की बदोलत अण्डमान हमारे दिलों के बहुत करीब है। एक ओर लाखों साल पुराने आदि मानव की सजीव झांकी के समकक्ष होने का रोमांच तो दूसरी ओर नई दिल्ली के गणतंत्र दिवस उत्सव जैसे 'द्वीप समारोहÓ का उल्लास लेखक ने एक साथ अतीत और वर्तमान को हमारे सामने ला खड़ा किया है। कुछ जनजातियां आज भी सभ्यता से कटी हुई, घासफूस की झोंपडयि़ों में निर्वस्त्र रहते हुए शिकार और वनस्पति के सहारे जीवन व्यतीत कर रही हैं। कल का 'काला पानीÓ आज शहीदों के तीर्थ स्थल के रूप में हमारा प्रेरणास्रोत है। नवनिर्माण के कार्य में लगे वहां के मूल निवासी तथा अन्य राज्यों से आए लोग मिली-जुली संस्कृति का अनोखा उदाहरण है। दैनिक पल-पल के पाठकों की मांग पर इस पुस्तक को लड़ी वार प्रकाशित किया जा रहा है।
अण्डेमान में सूचनाओं की धुरी - बख्तावर सिंह
अण्डेमान निकोबार प्रशासन के मुख्य सचिवालय के सामने पूर्व पुलिस अधिकारी सरदार बख्तावर सिंह का निवास स्थान है। स० बख्तावर सिंह न केवल सभ्य व असभ्य समाज के बीच एक कड़ी हैं बल्कि अण्डेमान की सूचनाओं की धुरी भी हैं। 80 वर्षीय स० बख्तावर सिंह 9 मार्च 1935 को अंग्रेज सरकार द्वारा पंजाब पुलिस की उस टुकड़ी के सदस्य के रूप में पोर्ट ब्लेयर पहुंचे थे जिसे अंग्रेज सरकार ने अण्डेमान निकोबार में तैनात किया गया था। पंजाब के लुधियाना जिला के हरगना गांव के निवासी स० बख्तावर सिंह अब अण्डेमान निकोबार द्वीप समूह में स्थायी नागरिक के रूप में रह रहे हैं, हालांकि उप पुलिस अधीक्षक के रूप में 1974 में सेवा निवृत होने के बाद एक बार उन्होंने पंजाब वापस आने के लिए अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था, मगर अण्डेमान प्रशासन द्वारा उन्हें आदिवासियों, विशेषकर आदिवासियों की सबसे खतरनाक जाति जारवा से सम्पर्क करने के लिए अण्डेमान में रहने को कहा गया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार करते हुए यह साहसिक कार्य संभाला। आज स० बख्तावर सिंह सभ्य समाज के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस आदिवासी जाति के साथ सम्पर्क तथा प्रशासन के सहयोग से ऐसे हालात पैदा कर दिये कि यह जाति अब सभ्य समाज के प्रति मैत्रीपूर्ण रवैया अपनाती है।
स० बख्तावर सिंह ने लेखक को 1955 से लेकर आज तक की ऐसी बातें बतायी, जिनमें जापानी शासकों द्वारा अण्डेमान के निवासियों पर अत्याचारों की कहानी से लेकर आदिम जातियों के संबंध में अनेक नयी जानकारियां थीं। उन्होंने बताया कि 1935 में अण्डेमान द्वीप समूह पर लगभग बीस हजार लोग रहते थे। उनमें अधिकतर वह परिवार थे जिन्हें अंग्रेज, कैदियों के रूप में इस द्वीप पर लाए थे। उस समय अंग्रेज शासकों ने इस द्वीप समूह को बसाने के लिए कैदियों को पूर्ण सुविधाएं दे रखी थीं जिसमें प्रत्येक कैदी को प्रतिमाह 10 रूपये, उसकी पत्नी को 5 रूपये व प्रत्येक बच्चे को 2 रूपये भत्ता दिया जाता था ताकि वहां भेजे गए कैदी अपने परिवार को बुलाकर वहीं बस जाए। बख्तावर सिंह ने बताया कि जहां एक कैदी को औसतन 20-22 रूपये मिलते थे जो अपना परिवार अण्डेमान में रखता था। वहीं पुलिस के एक कांस्टेबल को 12 रूपये वेतन मिलता था । अंग्रेजों ने यहां साधारण कैदियों को अण्डेमान द्वीप समूह की एक बस्ती बनाने के उद्देश्य से वहां भेजा, वहीं स्वतंत्रता सेनानियों को सैल्यूलर जेल में अमानवीय ढंग से रखा।
जापानियों के शासनकाल में अण्डेमान द्वीप समूह में भारतीयों पर हुए अत्याचारों की दर्दनाक दास्तान सुनाते हुए स० बख्तावर सिंह ने डा० दीवान सिंह का विशेष उल्लेख किया, जिन पर जापानियों ने आत्मसमर्पण करने के लिए भारी दबाव डाला। जब डा० दीवान सिंह टस से मस नहीं हुए तो जापानियों ने उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू करार देते हुए शहीद कर दिया। डा० दीवान सिंह की शहीदी के बाद अण्डेमान द्वीप समूह के लोग बुरी तरह डर गए तथा जापानियों ने हिन्दुस्तानियों पर अंग्रेजों से भी अधिक अत्याचार किए। इस द्वीप समूह में जापानी कब्जे का आंखों देखा हाल सुनाते हुए स० बख्तावर सिंह ने बताया कि 7-8 मार्च 1942 को जापानियों का एक जहाज जैसे ही इस द्वीप समूह में पहुंचा, तो केवल तत्कालीन मुख्य आयुक्त सी.एफ. वाटरपाल के सिवा अधिकांश अंग्रेज अधिकारी वहां से भाग खड़े हुए तथा जापानियों ने बिना लड़ाई किए इस द्वीप समूह पर कब्जा कर लिया। जहां जापानियों ने अण्डेमान द्वीप समूह पर अनेक अत्याचार किए, वहीं उन्होंने इस द्वीप समूह को विकसित करने की ओर भी ध्यान दिया। पोर्ट ब्लेयर का हवाई अड्डा जापानियों के समय ही बना। इसी प्रकार जापानियों ने इस द्वीप समूह में अनेक सड़कों का निर्माण किया तथा स्कूल खोले ।
जापान के हिरोशिमा नगर पर परमाणु बम गिरने के बाद, जापानी जैसे ही दूसरा महायुद्ध हारे, उन्होंने हथियार डालते हुए अण्डेमान निकोबार द्वीप समूह को भी खाली कर दिया, मगर अपने शासनकाल के दौरान जापानियों ने पोर्ट ब्लेयर से लगभग एक किलोमीटर दूर समुद्र में रास द्वीप की जो उस समय तक अंग्रेजों की राजधानी था, की भारी तोड़-फोड़ की। आज यह रास द्वीप भारतीय नौसेना के पास है। यहां के पुराने भवन बड़ी जर्जर अवस्था में हैं। इस द्वीप के लिए पोर्ट ब्लेयर से दिन में कई बार छोटे जहाज आते-जाते रहते हैं तथा पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। द्वीप इन दिनों पूरी तरह खण्डहर दिखायी देता है। जारवा जाति से किस प्रकार उनका सम्पर्क हुआ, इसके संबंध में पूछने पर स० बख्तावर सिंह का कहना है कि 1973 में अण्डेमान प्रशासन द्वारा एक सम्पर्क दल की स्थापना करके, जारवा जनजाति के लोगों को सभ्य समाज के रूप में रहने के प्रयास आरंभ किए गए। आरम्भ में जब वे इन जाति के लोगों के बीच जाते थे तो वे हिंसक हो उठते थे, मगर संकेतों से व उनके बीच उन जैसा बनकर जाने से हमें 1978 तक उनसे सम्पर्क करने में सफलता मिली। तब से अब तक प्रशासन की ओर से लगभग प्रतिमाह एक सम्पर्क दल जारवा के बीच जाता है तथा प्रशासन की ओर से उन्हें नारियल, कपड़े, चावल तथा कुछ और सामान उन्हें देता है। आरम्भ में इस जाति के लोग, सम्पर्क दल द्वारा दिये गए सामान को लेने से इन्कार कर देते थे, मगर अब वे न केवल सामान को सहर्ष स्वीकार करते हैं बल्कि सम्पर्क दल के आने की प्रतीक्षा भी करते हैं।
जारवा जाति के लोग पूर्णतया नंगे रहते हैं। सम्पर्क दल द्वारा उन्हें जब भी पहनने को कपड़े दिये गए हैं, वह उन कपड़ों को लेकर व फाड़ कर अपने सिरों से बांध लेते हैं। इस जाति के कुछ बच्चों को सम्पर्क दल के प्रयासों से आवश्यक कपड़े पहनने की आदत डाली जा रही है। इस जाति के लोग अभी भी जंगलों में शिकार के लिए घूमते रहते हैं। सूअर का शिकार इनका सबसे प्रियं शिकार है। ये लोग सूअर का शिकार करने के बाद भूनकर खाते हैं। सूअर को भूनने के लिए आग जलाने के लिए आज भी ये लोग किसी प्रकार की माचिस का प्रयोग करने के स्थान पर पत्थरों व लोहे की घर्षण से आग जलाकर उसे कई-कई दिन तक बचाए रखते हैं जारवा जाति व अन्य जनजातियों के संबंध में एक और जानकारी यह दी गई कि ये लोग नंगे रहते हुए भी अश्लील हरकतें नहीं करते तथा इस जाति में एक पुरूष केवल एक स्त्री से ही संबंध रख सकता है तथा वह भी शादी के बाद । अण्डेमान प्रशासन ने पोर्ट ब्लेयर से कोई 30-35 कि०मी० दूर जंगलों में जारवा जाति के लिए एक क्षेत्र आरक्षित किया हुआ है तथा उस क्षेत्र में जाने के लिए विशेष स्वीकृति प्रदान की जाती है। सम्पर्क दल के साथ ही वहां इच्छुक लोगों को भेजा जाता है। 1993 में पहली बार, इस जाति के लोगों पर मुख्य भूमि से गए फोटोग्राफरों व पत्रकारों के एक दल द्वारा कुछ समय पूर्व जारवा जाति के दो व्यक्तियों को पार्ट ब्लेयर लाया गया। मकसद यहा था कि वे लोग अपनी आंखों से सभ्य समाज के संबंध में जानकारी लें। इस जाति के लोग धीर-धीरे सभ्य समाज के नजदीक आ रहे हैं तथा जनजातियों की अगली पीढ़ी शायद ही वर्तमान रूप में रहे। मैंने स० बख्तावर सिंह से पूछा कि सम्पर्क दल के लोग इस जाति के लोगों के बीच जाते हैं तो अपने अधिकाशं कपड़े उतार कर क्यों जाते हैं। उनका कहना था कि हम लोग अपने कपड़े इसलिए उतार कर जाते हैं ताकि उन्हें यह महसूस हो कि यह लोग भी हमारे जैसे हैं। जब उनसे सम्पर्क की भाषा के संबंध में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि अभी तक केवल संकेतों द्वारा ही उनसे सम्पर्क किया जाता है। जारवा जाति की संख्या के संबंध में अभी तक सही-सही जानकारी नहीं है। लेकिन अनुमान है कि इस जाति की संख्या केवल सैकड़ों में है क्योंकि अब तक सम्पर्क दल को केवल एक बार जारवा जाति के 116 लोग एक साथ इकट्ठे मिले हैं। अनेक बार तो इन लोगों की संख्या बहुत कम होती है जिससे अनुमान है कि जारवा जाति की जनसंख्या बहुत अधिक नहीं है। स० बख्तावर सिंह से जब उनके पुराने प्रदेश पंजाब व परिवार के संबंध में जानकारी मांगी तो उन्होंने बताया कि आज भी उनका सम्पर्क पंजाब के साथ है तथा उनके अधिकांश सम्बंधी पंजाब में ही रहते हैं। यहीं उनका एक बेटा, इन दिनों अण्डेमान प्रशासन के कृषि विभाग में निरीक्षक के पद पर सेवारत है। लगभग 60 वर्ष पूर्व अण्डेमान द्वीप समूह में गए स० बख्तावर सिंह में आज भी पंजाबी संस्कृति के प्रति गहरा लगाव है तथा उन्होंने लेखक के साथ अधिकांश समय पंजाबी में ही बातचीत की।

