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शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-28

अंडेमान निकोबार द्वीप समूह मिनी भारत

लेखक : सुरेन्द्र भाटिया

 
शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-28

भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा वर्ष १९९५ में आरंभ किए गए द्वीप महोत्सव का साक्षी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं व मेरे तीन सहयोगी इस समारोह में भाग लेने के लिए पोर्ट ब्लेयर गए। इस यात्रा की वापसी पर एक यात्रा संस्मरण की लड़ी का लेखन मेरे द्वारा किया गया जिसे भारत सरकार के हिंदी निर्देशालय के सहयोग से एक पुस्तक का रुप दिया गया। अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह -देश की मुख्य भूमि से 1200 कि.मी. दूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कुल 572 द्वीप हैं, जिनमें आबादी केवल 38 द्वीपों में ही है। अपने शानदार इतिहास और प्राकृति के बेशकीमती खजाने की बदोलत अण्डमान हमारे दिलों के बहुत करीब है। एक ओर लाखों साल पुराने आदि मानव की सजीव झांकी के समकक्ष होने का रोमांच तो दूसरी ओर नई दिल्ली के गणतंत्र दिवस उत्सव जैसे 'द्वीप समारोहÓ का उल्लास लेखक ने एक साथ अतीत और वर्तमान को हमारे सामने ला खड़ा किया है। कुछ जनजातियां आज भी सभ्यता से कटी हुई, घासफूस की झोंपडयि़ों में निर्वस्त्र रहते हुए शिकार और वनस्पति के सहारे जीवन व्यतीत कर रही हैं। कल का 'काला पानीÓ आज शहीदों के तीर्थ स्थल के रूप में हमारा प्रेरणास्रोत है। नवनिर्माण के कार्य में लगे वहां के मूल निवासी तथा अन्य राज्यों से आए लोग मिली-जुली संस्कृति का अनोखा उदाहरण है। दैनिक पल-पल के पाठकों की मांग पर इस पुस्तक को लड़ी वार प्रकाशित किया जा रहा है। 

अण्डेमान की राजनीतिक व्यवस्था : निकोबार द्वीप समूह-2

जब अन्य ईसाई धर्म प्रचारक कार निकोबार में रह रहे थे, एक डच साहसपूर्ण अभियानकर्ता विलियम बोल्ट ने कार निकोबार में आस्ट्रिया का झण्डा फहरा दिया। बाद में बोल्ट इन द्वीपों के लिए अपनी विशेष योजनाओं पर महारानी मेरिया थैरेसा की पूर्व स्वीकृति से एक जहाज लेकर इन द्वीपों की ओर चल पड़ा किन्तु जहाज समुद्र में भटक गया और टूट गया। उसके साथी बोनेट ने 1778 में नानकौरी, कार निकोबार, ट्रिकट तथा कचाल पर आधिपत्य जमाया जिसकी विधिवत घोषणा भी की गई। बोल्ट का साहसिक प्रयास उस समय के अन्य यूरोप के देशों द्वारा किये गए प्रयासों के अनुरूप था। वे समझते थे कि पूर्व देश की धरती पर झण्डा फहराना या कोई छोटा कारखाना खोल देना उस देश पर उनका स्वामित्व के अधिकार प्रदान करने लिए पर्याप्त है। लगता है बोल्ट की कार्यवाही से डेनमार्क के लोग नाराज हो गए। इन द्वीपों पर डेनमार्क का अधिकार पूर्ववत् बने रहने के लिए, इस बात का निर्णय लिया गया कि वहां एक नयी बस्ती बनाई जाये। सन 1783 में बादशाह ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से समस्त अधिकार ले लिये किन्तु डेनमार्क सरकार के निर्णय के अनुसार निकोबार के द्वीपों के लिए एक अभियान दल भेजा गया जो बीमारी के कारण असफल रहा। सन 1793 से लेकर 1807 तक डेनमार्क वालों ने यहां पर एक सशस्त्र निगरानी चौकी रखी। सन् 1807 में नेपोलियन से युद्ध काल में अंग्रेजों ने इस द्वीपों पर भी ग्रेट ब्रिटेन के नाम से कब्जे की घोषणा की किन्तु उनकी कागजी घोषणा भी 1814 में समाप्त हो गई जबकि युद्ध के अंत में ये द्वीप औपचारिक रूप से डेनमार्क को लौटा दिए गए। इस बीच फ्रांस ने भी इन द्वीपों पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया किन्तु वे विफल रहे। अन्त में डेनमार्क ने 1845 में इन द्वीपों पर पांव जमाने का अन्तिम प्रयास किया। बूस को यहां भेजा जिसने डेनमार्क का झण्डा फहराने के लिए दो आदमियों को नियुक्त किया। सन् 1848 में डेनिश सरकार ने यहां के गढ़ को मजबूत बनाने के ने अधिकार का परित्याग कर दिया और निकोबार द्वीपों से बस्ती के शेष चिन्ह भी हटा दिए। सन 1849 से 1869 तक ये द्वीप स्वतन्त्र छोड़ दिए गए। केवल एक घटना इस बीच हुई और वह थी पोलैंड के एक अधिकारी द्वारा पोलैंड के मंत्रालय में 1867 में इन द्वीपों पर आधिपत्य जमाने की इच्छा जागृत करने की दिशा में एक असफल प्रयास। इन द्वीपों पर कब्जा करने के लिए यूरोप के देशों की परम्परागत लड़ाई से निकोबारी लोग काफी नाराज हो गए। उन दिनों सारे हिन्द महासागर में निकोबारी लोग, लगभग समुद्री डाकुओं की तरह बदनाम थे। इस बीच निकोबार समुद्र तट के समीप समुद्र में लंगर डाले हुए जहाज के नाविकों पर अचानक आक्रमण की अनेक घटनाएं घटी। सन् 1839 में नानकौरी के बन्दरगाह पर एक जहाज के ऊपर आक्रमण किया गया जिसमें से कुछ अधिकारियों को समुद्र तट पर ले जाकर मार दिया गया। चालीस आदमियों में से केवल पांच आदमी भागने में सफल हुए। इसी स्थान पर 1843 में एक छोटा जहाज जो बंगाल से आ रहा था, उसके सभी पच्चीस नाविक मार दिए गए। सन 1852 में एक अंग्रेज के जहाज पर डाका डाला गया जिसमें सभी नाविकों को मार डाला गया । सन 1867 में एक छोटा जहाज "फतेह इसलाम" पर ट्रिकेट के पास धावा बोल कर 21 आदमियों को जान से मार डाला। भारत सरकार ने इसे सख्ती से लिया। उन्हें इसका सबक सिखाने के लिए एक अभियान दल भेजा गया और यहां की जनजाति के लोगों की झोंपडिया जला दी गईं। यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहां दूसरे विदेशी लोग उपनिवेश बनाने में असफल रहे वहीं अंग्रेज सफल हो गए। इसका एक मात्र कारण है, भारतीय लोगों द्वारा अथक परिश्रम व बलिदान । दक्षिण पूर्व एशिया, फिलीपाईन्स, मॉरीशस, अफ्रीका इस बात के साक्षी हैं। सन 1866 में डेनिश सरकार से विधिवत इन द्वीपों का अपने नाम हस्तान्तरण कराने के पश्चात अंग्रेजों ने यहां पर औपनिवेशिक बस्ती बनाने का कार्यक्रम बनाया। भारत के महान स्वतन्त्रता सेनानियों तथा कैदियों ने अनेक कठिनाईयों तथा विपरीत जलवायु का सामना किया। उनके अथक परिश्रम द्वारा नानकौरी में इस बस्ती का सफलतापूर्वक निर्माण हुआ। अंग्रेजों की समझ में आ गया. निकोबार के लोग नारियल की तरह सख्त व ठोस घेरे से संगठित हैं। जिसे तोड़ता असंभव था । अन्त में वे इन द्वीपों में प्रशासन चलाने में असफल रहे और उन्हें अपने नाम मात्र के नियंत्रण से सन्तोष करना पड़ा। कैप्टनों ने इस बात को मान लिया कि जब भी कभी उन द्वीपों में कोई अन्य जहाज आयेगा तो वे बन्दरगाह पर अंग्रेजी झण्डा फहरा देंगे। अंग्रेज सद्भावना के इस प्रदर्शन से सन्तुष्ट थे। इस प्रकार इन द्वीपों में प्रशासन बहुत ढीला था। केवल दो चार महीनों में कभी एक अभियान दल आता था। बिशप रिचर्डसन के रंगून से पढ़-लिखकर इन द्वीपों में लौटते ही स्थिति में सहसा बड़ा परिवर्तन आ गया। बिशप रिचर्डसन की बचपन में पादरी सोलोमन ने तथा बाद में ईसाई धर्म प्रचारकों ने रंगून में काया-कल्प कर डाली और पूरा मस्तिष्क ही बदल दिया। अब वह अंग्रेजों का एक राजभक्त नागरिक था। कार निकोबार में एक असिस्टेंट कमिश्नर का पद था। जापानी आधिपत्य के पूर्व अंग्रेजी शासन काल का यहां पर अन्तिम पदाधिकारी एक अंग्रेज था जिसका नाम स्कॉट था। द्वितीय महायुद्ध के दिनों तक जापानी आधिपत्य क्षेत्र में अंग्रेज की "वन थ्री सिक्स" एक जासूसी गुप्त संस्था के सदस्य के रूप में उसने इन द्वीपों में जापानियों को परेशान करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। प्रारंभ में जापानियों के स्थानीय निकोबार जनजाति के लोगों से मधुर संबंध थे, किन्तु बाद में जब तोड़-फोड़ की कार्यवाही होने लगी तथा भेदियों द्वारा गुप्त सूचनाएं भेजने के फलस्वरूप उनके जहाज हमलों में डूबने लगे, तो वे निकोबारियों को शक की दृष्टि से देखने लगे तथा संदिग्ध व्यक्तियों को जिनमें अधिकांश निर्दोष थे, मौत के घाट उतार दिया। बिशप रिचर्डसन को भी गिरफ्तार किया गया। जिस दिन उसे मृत्यु दण्ड मिलने वाला था, उसी दिन जापान ने हथियार डाल दिए। उसको छोड़ते हुए जापानी अधिकारी ने कहा कि वास्तव में तुम भाग्यशाली व्यक्ति हो । अंग्रेजों द्वारा दोबारा कब्जा करने तथा भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बीच अंग्रेजों द्वारा इन द्वीपों को भारत में न जाने देने के अनेक प्रयास किए गए जो असफल रहे तथा ये द्वीप भारत के अभिन्न अंग बने रहे। आजादी के तुरन्त बाद अण्डमान द्वीप समूहों पर अधिक ध्यान दिया गया तथा निकोबार के द्वीपों की उपेक्षा सी की गई और जब नया मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) पहली बार वहां गया तो उसका अंग्रेजी रीति-रिवाज़ों से स्वागत हुआ। जब उनसे बात की गई तो उन्होंने इस बात पर अनभिज्ञता प्रकट की कि “अंग्रेज” चले गए तथा भारत आजाद हो गया। यह एक नाटकीय प्रदर्शन नहीं था। वहां के आम लोगों को वास्तव में इस विषय में मालूम नहीं था । उनके लिए यह एक आश्चर्यजनक सूचना थी। जब से इन द्वीपों को राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सड़के व नाव घाट बनाकर तथा स्कूल व अस्पताल खोलकर, निष्ठापूर्वक प्रयास किए गए हैं। किन्तु उनका जन-जीवन, दिनचर्या अभी भी पूर्ववत् है । बिशप रिचर्डसन ने वर्तमान प्रशासन को बहुत राहयोग दिया और स्वंय लेखक के साथ इन द्वीपों के विकास के संबंध में उनकी अनेक बार बातें हुई। अस्सी वर्ष के ऊपर होने पर भी वे बहुत चुस्त, ताकतवर व फुर्तीले थे । कैप्टेन का चुनाव प्रजातंत्र पद्धति से प्रारंभ किया जा रहा है क्योंकि पढे-लिखे युवक परिवर्तन चाहते हैं किन्तु जनजाति के सख्त अनुशासन से बंधे होने के कारण वे खुलकर आगे आने को अभी तैयार नहीं है। आगे किस दिशा में हवा बहेगी वह केवल भविष्य ही बताएगा। निकोबार द्वीप समूह की जनजाति, राजनीति से अभी बहुत दूर है। उनकी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है, फिर भी उनके बीच एक मजबूत अनुशासन है। इनमें से एक सदस्य अवरडीन, ब्लेयर अंडेमान प्रशासन पार्षद है।