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शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-27

अंडेमान निकोबार द्वीप समूह मिनी भारत

लेखक : सुरेन्द्र भाटिया

 
शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-27

भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा वर्ष १९९५ में आरंभ किए गए द्वीप महोत्सव का साक्षी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं व मेरे तीन सहयोगी इस समारोह में भाग लेने के लिए पोर्ट ब्लेयर गए। इस यात्रा की वापसी पर एक यात्रा संस्मरण की लड़ी का लेखन मेरे द्वारा किया गया जिसे भारत सरकार के हिंदी निर्देशालय के सहयोग से एक पुस्तक का रुप दिया गया। अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह -देश की मुख्य भूमि से 1200 कि.मी. दूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कुल 572 द्वीप हैं, जिनमें आबादी केवल 38 द्वीपों में ही है। अपने शानदार इतिहास और प्राकृति के बेशकीमती खजाने की बदोलत अण्डमान हमारे दिलों के बहुत करीब है। एक ओर लाखों साल पुराने आदि मानव की सजीव झांकी के समकक्ष होने का रोमांच तो दूसरी ओर नई दिल्ली के गणतंत्र दिवस उत्सव जैसे 'द्वीप समारोहÓ का उल्लास लेखक ने एक साथ अतीत और वर्तमान को हमारे सामने ला खड़ा किया है। कुछ जनजातियां आज भी सभ्यता से कटी हुई, घासफूस की झोंपडयि़ों में निर्वस्त्र रहते हुए शिकार और वनस्पति के सहारे जीवन व्यतीत कर रही हैं। कल का 'काला पानीÓ आज शहीदों के तीर्थ स्थल के रूप में हमारा प्रेरणास्रोत है। नवनिर्माण के कार्य में लगे वहां के मूल निवासी तथा अन्य राज्यों से आए लोग मिली-जुली संस्कृति का अनोखा उदाहरण है। दैनिक पल-पल के पाठकों की मांग पर इस पुस्तक को लड़ी वार प्रकाशित किया जा रहा है। 

अण्डेमान की राजनीतिक व्यवस्था : निकोबार द्वीप समूह-1

निकोबार द्वीप समूह के राजनीतिक इतिहास में अठारहवीं तथा उन्नीसवीं सदी में यूरोप के देशों की राजनीति की एक झांकी मिलती है। औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप पश्चिम देश व्यापार के लिये तथा देशों को हथियाने के लालच में पूर्व की तरफ पागलों की तरह भागते रहे। बारूद के आविष्कार ने उन्हें बन्दूक प्रदान कर दी थी, जिसका पूर्वी देश किसी प्रकार से मुकाबला नहीं कर सकते थे। उन्होंने विभिन्न देशों को बिना वहां के लोगों की प्रभुत्ता की परवाह किए, उन्हें हड़पने तथा वहां पर अपने उपनिवेश बनाने की नई रणनीति बनाई। पश्चिम के भूखे देश एक के बाद एक पूर्वी देशों को निगलने लगे और परस्पर इन देशों के लिए ऐसी सौदेबाजी करते मानो कि ये देश न होकर कोई क्रय-विक्रय की वस्तु हो। ब्रिटेन, फ्रांस तथा डेनमार्क की तीन अलग-अलग ईस्ट इण्डिया कंपनियां अधिक से अधिक देशों में आधिपत्य जमाने की जी जान से कोशिश कर रही थीं और इस बात की होड़ सी लग गई थी कि पहले कौन पहुंचता है। इस दौड़ में चतुर अंग्रेज अधिक सफल रहे क्योंकि विभिन्न प्रकार के दांव पेंच से उन्होंने चुपचाप भारत पर आधिपत्य जमा लिया। इन देशों पर आधिपत्य जमाने के लिए पश्चिम के देशों ने तीन वस्तुओं का विशेष प्रयोग किया। वे थे बाईबल, चीरा लगाने का चाकू तथा बन्दूक। पहले वे ईसाई धर्म प्रचारकों को भेजते, तत्पश्चात जात डाक्टर और उसके अनुसार इनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन किया जाता था। जैसे कि कुछ स्थानों पर ईसाई धर्म प्रचारकों को ही सारे काम सौंप दिए गए। विशेष रूप से निकोबार द्वीप के राजनीतिक इतिहास में इस नीति की झलक साफ नजर आती है।

निकोबार द्वीप समूह के बारे में अनेक प्राचीन यात्रियों के लेखों में जिक्र आया है। इशिंग अपनी सन् 678 ई० की यात्रा के विवरण में इन द्वीपों को नग्न लोगों का देश कहता है। (लो-जेन-कुंओं) । प्लोटेमी इन्हें नागा द्वीप कहता है जो कि हिन्दी का शब्द है और नग्न लोगों के लिए प्रयुक्त होता है। इस बात के विश्वसनीय प्रमाण हैं कि इसका असली नाम “नाकारम” एक भारतीय राजा का दिया हुआ था जो बाद में अपभ्रंश होकर निकोबार बन गया। सन् 1050 के तन्जोर के शिलालेख में इन द्वीपों का उल्लेख है। इस शिलालेख के अनुसार चोल राजा राजेन्द्र द्वितीय ने दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अपने समुद्र पार के अभियान में इन द्वीपों की जीता था। भारतीय लोग कार निकोबार को “कारद्वीप” तथा ग्रेट निकोबार को “नागाद्वीप” तथा द्वीप समूह को “नक्काबरम" के नाम से जानते थे। मारकोपोलो ने इन्हें 'निकूबरम” कहा। तेरहवीं सदी में भारतीयों द्वारा दिया हुआ यह एक नाम “नकाबरम” अरब तथा यूरोप के लोगों में भी प्रचलित हो गया था। ईसाई धर्म के प्रचारक ओडोरिक जिसने इन द्वीपों का 1322 में भ्रमण किया, वह इन्हें “निकोबरम” कहता है। पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों ने इन्हें “नकूबार” और “निकोबार" के नाम से संबोधित किया। जब ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रारंभिक प्रयास असफल हो गए तो 1726 में फादर चार्ल्स दे मोन्टेलीमबार्ट ने फ्रांसीसी गवर्नर को एक पत्र लिखा जिसमें उसने इन द्वीपों में एक कारखाना खोलने का प्रस्ताव दिया और 1741 में फ्रांसीसी ईस्ट इण्डिया के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ़ने की दृष्टि से वह यहां पर आया। किन्तु 1742 में पान्डीचेरी पावस लौट गया जहां उसका निधन हो गया।

इसी समय डेनमार्क की ईस्ट इण्डिया कम्पनी का ध्यान भी कार निकोबार द्वीप की ओर गया। यहां पर उपनिवेश बनाने की योजना बनाई गई तथा इस उद्देश्य से एक अभियान दल ट्रावनकोर से 1755 में चला और यहां पर व्यापारिक ईकाई खोली गई तथा निकोबार द्वीप का नाम बदलकर फ्रेड्रिक द्वीप रखा गया। किन्तु तभी वहां फैले ज्वर में इसके सभी सदस्य मर गए । सन 1769 में उन्होंने दूसरा प्रयास किया। इस के बाद सैनिक, सेवक तथा ईसाई धर्म प्रचारकों का एक दल नानकौरी पहुंचा किन्तु बीमारी के कारण उन्हें भी 1771 में इसका परित्याग करना पड़ा। इसके पश्चात डेनमार्क की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कार निकोबार में रहने वाले ईसाई पादरी को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया ताकि अन्य विदेशी ताकतों द्वारा इन द्वीपों पर आधिपत्य रूक सके। ईसाई धर्म प्रचारकों को निकोबार द्वीप के ऊपर अपनी प्रभुसत्ता जमाने का कोई अधिकार नहीं था। डेनमार्क की ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा नानकौरी में रखी बन्दूकें भी धीरे-धीरे मलाया के समुद्री चोर डाकू ले गए।