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शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-25

अंडेमान निकोबार द्वीप समूह मिनी भारत

लेखक : सुरेन्द्र भाटिया

 
शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-25

भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा वर्ष १९९५ में आरंभ किए गए द्वीप महोत्सव का साक्षी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं व मेरे तीन सहयोगी इस समारोह में भाग लेने के लिए पोर्ट ब्लेयर गए। इस यात्रा की वापसी पर एक यात्रा संस्मरण की लड़ी का लेखन मेरे द्वारा किया गया जिसे भारत सरकार के हिंदी निर्देशालय के सहयोग से एक पुस्तक का रुप दिया गया। अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह -देश की मुख्य भूमि से 1200 कि.मी. दूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कुल 572 द्वीप हैं, जिनमें आबादी केवल 38 द्वीपों में ही है। अपने शानदार इतिहास और प्राकृति के बेशकीमती खजाने की बदोलत अण्डमान हमारे दिलों के बहुत करीब है। एक ओर लाखों साल पुराने आदि मानव की सजीव झांकी के समकक्ष होने का रोमांच तो दूसरी ओर नई दिल्ली के गणतंत्र दिवस उत्सव जैसे 'द्वीप समारोहÓ का उल्लास लेखक ने एक साथ अतीत और वर्तमान को हमारे सामने ला खड़ा किया है। कुछ जनजातियां आज भी सभ्यता से कटी हुई, घासफूस की झोंपडयि़ों में निर्वस्त्र रहते हुए शिकार और वनस्पति के सहारे जीवन व्यतीत कर रही हैं। कल का 'काला पानीÓ आज शहीदों के तीर्थ स्थल के रूप में हमारा प्रेरणास्रोत है। नवनिर्माण के कार्य में लगे वहां के मूल निवासी तथा अन्य राज्यों से आए लोग मिली-जुली संस्कृति का अनोखा उदाहरण है। दैनिक पल-पल के पाठकों की मांग पर इस पुस्तक को लड़ी वार प्रकाशित किया जा रहा है। 

अण्डेमान की धार्मिक व्यवस्था

अण्डेमान तथा निकोबार द्वीप समूह भारत के धार्मिक स्वरूप की मूल भावनाओं का सही प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां पर हिन्दुओं की काफी संख्या है और उनके अनेक मन्दिर हैं जहां त्यौहारों पर बड़े उत्साहपूर्वक पूजा पाठ होता है। पोर्ट ब्लेयर में राधा गोबिन्द का मन्दिर बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित करता है। जंगलीघाट में शिवजी व दुर्गा का मन्दिर है जहां पर नियमित रूप से लोगों की भीड़ कीर्तन भजन करती रहती है। दुर्गा पूजा का त्यौहार पोर्ट ब्लेयर तथा अन्य द्वीपों में जहां भी बंगाली लोगों की आबादी है' बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। दुर्गा की बहुत सुन्दर मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्तिकारों को बाहर से बुलवाया जाता है। तमिल, तेलुगू, मलयालियों व महाराष्ट्रियों के विभिन्न तीज त्यौहार भी बड़े उत्साह के साथ मनाये जाते हैं। एक विचित्र बात इस संबंध में जो यहां पर देखने में आती है, यह है कि कोई भी त्यौहार चाहे वह किसी वर्ग या धर्म का हो हिन्दु, मुसलमान, ईसाई सभी द्वीपवासी उत्साहपूर्वक उसमें भाग लेते है। पोर्ट ब्लेयर में एक सुन्दर गुरूद्वारा है। एक अन्य गुरूद्वारा ग्रेट निकोबार के कैंपबेल-बे में है। इन द्वीपों में अनेक सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाएं भी स्थापित की गई हैं जिनमें अधिकांश पोर्ट ब्लेयर में हैं। स्वामी विवेकानंद स्मारक समिति द्वारा पोर्ट ब्लेयर में एक शिक्षा संस्थान खोला गया है जहां पर गोष्ठियां तथा वाद-विवाद होते हैं । चिन्मयानन्द मिशन भी इसी प्रकार की संस्था चलाता है। यहां पर एक स्कूल आनन्दमार्गियों द्वारा भी चलाया जाता है। इन द्वीपों में “बहाई” संस्था भी कई वर्षों से सक्रिय है। पोर्ट ब्लेयर में ईसाईयों की भी काफी संख्या है जिसमें रोमन कैथोलिक तथा मैथाडिस्ट चर्च दोनों के अनुयायी सुम्मिलित हैं। उनके बहुत सुन्दर गिरजाघर हैं तथा उनके शिक्षा एवं निःशुल्क सेवा संस्थान भी हैं जिनमें एक "कारमल गर्ल्स स्कूल” है जो काफी प्रसिद्ध है।

बिशप श्रीनिवासन इन द्वीपों में एक लम्बे समय तक रहे व स्वयं ही एक में संस्था बन गए थे। वे मेथोडिस्ट चर्च के अनुयायी थे तथा इन द्वीपों के इतिहास की उन्हें अच्छी जानकारी थी। कुछ ही वर्ष पूर्व उनकी मुत्यु हुई। उन्होंने लेखक को एक बड़ी रोचक कहानी सुनाई कि किस प्रकार अंग्रेजी शासनकाल में सुकुमार कैदी लड़के को दयालु ईसाई पादरी ने बाहर भगा दिया जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि यूरोपीय शासकों तथा ईसाई पादरियों के बीच बहुत तालमेल था । श्रीनिवासन के अनुसार एक बार काला पानी की सजा भुगतने के लिए आने वाले कैदियों में एक लड़का, जिसको अभी दाढ़ी मूंछ भी नहीं निकली थी, पर अंग्रेज पादरी की उस लड़के पर अचानक दृष्टि पड़ी। दया से उसका हृदय भर उठा। पादरी उसके भोलेपन से इतना प्रभावित हुआ कि अधिकारियों से उसे छोड़ने का बहुत आग्रह किया। कानून के अनुसार उसे छोड़ा नहीं जा सकता इसलिए एक गुप्त के मंत्रणा के अनुसार एक मुसलमान पर्दानशीन औरत के वेश में उसे बुर्का पहनाकर विदेश में किसी अज्ञात स्थान पर चुपचाप भिजवा दिया। वाराटांग द्वीप में रांची (बिहार) से आए बहुत से लोग कई वर्षों से रह रहे हैं। उनमें अधिकांश ने ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया है। अधिकतर लोग वन विभाग में मजदूर के रूप में काम करते हैं। बाकी और तरह की मजदूरी करते हैं। इसाई पादरियों ने उनके लिए वहां गिरजाघर, स्कूल आदि खोले हैं। निकोबार द्वीप समूह की कहानी सर्वथा भिन्न है। जहां तक जीवनचर्या का संबंध है अण्डेमान तथा निकोबार द्वीप समूह के लोगों में जमीन आसमान का अन्तर है। यहां तक कि दोनों का इतिहास भी भिन्न है। कारनिकोबारी 'द्वीप के निकोबारी लोगों को इसाई बनाने के अथक प्रयास किए गए ताकि इन द्वीपों पर आधिपत्य स्थापित कर इन्हें उपनिवेश बनाया जा सके। बहुत पहले 1688 में दो ईसाई धर्म प्रचारक जो शायद “जेस्यूट” थे कमोटो द्वीप में रहते थे। उनका क्या हुआ इसके विषय में कोई जानकारी नहीं है। अठारहवीं सदी के आरंभ में पांडीचेरी में रहने वाले फ्रांसीसी ईसाई धर्म प्रचारकों ने इन द्वीपों में रूचि दिखाई। फादर पितरे व फादर बोनटे 1711 में निकोबार पहुंचे किन्तु दोनों खराब जलवायु तथा ज्वर से मर गए। सन 1741 में फादर चार्ल्स द मोन्टलबेल आये किन्तु खराब जलवायु के कारण वह भी 1742 में लौट गये और शीघ्र ही मर गये । सन 1769 में डेनमार्क के छ: इसाई धर्म प्रचारक आए किन्तु असह्य जलवायु तथा बीमारी से अधिकांश मर गए। 1787 तक केवल एक ईसाई धर्म प्रचारक काधे जीवित था उसे भी बीमारी की हालत में वहां से ले जाना पड़ा। ग्यारह ईसाई धर्म प्रचारकों का थोड़े समय के अन्दर काल कवलित होने से मोरे वियन मिशन का दिल ही बैठ गया। भारी कष्ट व बलिदान के बावजूद वे एक भी व्यक्ति को ईसाई नहीं बना सके। सन 1831 में एक अन्य डेनमार्क के धर्म प्रचारक रोजन कार निकोबार पहुंचे किन्तु गंभीर रूप से बीमार पड़ जाने के कारण उन्हें भी 1834 में लौट जाना पड़ा। फ्रांसीसी धर्म प्रचारकों सुपीज व गेलवर्ट ने ईसाई धर्म के प्रचार के लिए 1836 से 1845 तक अनेक प्रयास किए किन्तु वे भी विफल रहे।

अंग्रेजों ने 10 अप्रैल 1866 को औपचारिक रूप से निकोबार द्वीप समूह पर आधिपत्य जमाया (संभवतः भारत का यही भाग था जिस पर उन्होंने अन्तिम बार कब्जा किया) वे निकोबारियों से दोस्ती बढ़ाना चाहते थे किन्तु जो अंग्रेज वहां भेजा गया वह कुछ भी नहीं कर सका। निकोबारी समाज बिल्कुल अर्न्तमुखी है। सभी ईसाई धर्म प्रचारक वर्षों तक इस समाज पर किसी प्रकार का प्रभाव डालने में पूर्णतया असफल रहे। अंग्रेजों ने एक दक्षिण भारत के भारतीय ईसाई पादरी वेदाप्पन सोलोमन की सेवाओं का प्रयोग किया। सोलोमन पोर्ट ब्लेयर के हाडो में एक मिशन चला रहा था। जिसने निकोबार के कुछ अभिभावकों के बच्चों को पढ़ाने के लिए पोर्ट ब्लेयर, भेजने पर राजी कर लिया। हाडो के मिशन स्कूल में उनके रहने की व्यवस्था भी कर दी गई। एक रविवार को इन लड़कों को लकड़ी लाने के लिए एक छोटी सी डोंगी में बन्दरगाह के दूसरे किनारे बम्बूफलैट भेज दिया गया। स्वाभाविक रूप से लड़कों को अपने घर की बहुत याद सताती थी। जैसे ही वे बन्दरगाह में पहुंचे, समुद्र तथा ताजी हवा ने उन्हें अपने प्यारे घर की मधुर स्मृति से सहसा बेचैन कर दिया और कार निकोबार भाग जाने के लिए उन्होंने डोंगी को खुले समुद्र की ओर मोड़ दिया। उन्होंने ऊंची लहरों के सामने भीषण व खतरनाक समुद्र को डोंगी पर पार करना तय किया जिसकी आशंका भी नहीं हुई। नाव तथा लड़कों का कोई निशान तक नहीं मिला। इस त्रासदी ने सोलोमन को बहुत उदास व दुःखी कर दिया। उस द्वारा इन बच्चों को पोर्ट ब्लेयर लाने के पाप का प्रायश्चित करने तथा अभिभावकों को सान्त्वना स्वरूप कार निकोबार में स्कूल खोलने का निश्चय किया। अंग्रेज तुरन्त राजी हो गए और उन्होंने सोलोमन को निकोबार में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया ।

सोलोमन ने निकोबारियों से मित्रता के संबंध जोड़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य किया। यद्यपि वह वहां पर धर्म परिवर्तन कराने में सफल नहीं हुआ फिर भी वह इस जनजाति को महान नृतत्व प्रदान कराने की दिशा में एक माध्यम अवश्य बना। इस नेतृत्व ने इस द्वीपों के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। निकोबार के स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में एक होनहार तीव्र बुद्धि का प्रतिभावान बालक था जिसको आगे पढ़ने के लिए रंगून भेज दिया गया। उसने ईसाई बनकर रिचर्डसन नाम ग्रहण किया और निकोबार लौट आया। नब्बे वर्ष की आयु में 1979 में मृत्यु तक वह इन द्वीपों का भाग्य विधाता बना रहा है। निकोबारियों का तो वह मित्र, दार्शनिक व मार्गदर्शक सब कुछ था । वह सोलोमन का असली शिष्य था और कुछ बातों में तो वह सोलोमन से भी अधिक क्रियाशील था। निकोबारियों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बनाने का काम विभिन्न देशों के ईसाई पादरी व धर्म प्रचारक न कर सके। जिसे स्वंय सोलोमन भी नहीं कर पाया वह रिचर्डसन ने पूरा कर दिखाया। जिस प्रकार स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे उसी प्रकार रिचर्डसन ने सोलोमन के शिष्य के रूप में ख्याति अर्जित की।

सभी निकोबारियों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया जो एक प्रकार से बिशप रिचर्डसन की व्यक्तिगत उपलब्धि है। उसने ईसाई धर्म प्रचारकों के सदियों के स्वप्न को साकार किया किन्तु वह भी निकोबारियों को उनके पारम्परिक रीति रिवाजों तथा मान्यताओं से विमुख नहीं कर सका। वास्तव में निकोबारियों के लिए यह केवल एक बाहरी परिवर्तन था जिसे उनकी अंतरात्मा ने नहीं स्वीकारा। वे अब भी अपने मृतकों की पारम्परिक पूजा करते हैं तथा भूतप्रेत को भगाने के लिए तंत्र-मंत्र करते रहते हैं। सूअर की बलि कर उसके खून को शरीर पर लगाकर सामूहिक पूजा अब भी करते हैं। इसाई धर्म अपनाने से उनकी जीवनचर्या में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया। कुछ निर्धारित दिनों में गिरजाघर जाने के अलावा शेष समय में वे अपने भूत-प्रेतों की पूजा में लगे रहते हैं।