शहीदों का तीर्थ अंडेमान निकोबार-24
लेखक : सुरेन्द्र भाटिया

भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा वर्ष १९९५ में आरंभ किए गए द्वीप महोत्सव का साक्षी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं व मेरे तीन सहयोगी इस समारोह में भाग लेने के लिए पोर्ट ब्लेयर गए। इस यात्रा की वापसी पर एक यात्रा संस्मरण की लड़ी का लेखन मेरे द्वारा किया गया जिसे भारत सरकार के हिंदी निर्देशालय के सहयोग से एक पुस्तक का रुप दिया गया। अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह -देश की मुख्य भूमि से 1200 कि.मी. दूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कुल 572 द्वीप हैं, जिनमें आबादी केवल 38 द्वीपों में ही है। अपने शानदार इतिहास और प्राकृति के बेशकीमती खजाने की बदोलत अण्डमान हमारे दिलों के बहुत करीब है। एक ओर लाखों साल पुराने आदि मानव की सजीव झांकी के समकक्ष होने का रोमांच तो दूसरी ओर नई दिल्ली के गणतंत्र दिवस उत्सव जैसे 'द्वीप समारोहÓ का उल्लास लेखक ने एक साथ अतीत और वर्तमान को हमारे सामने ला खड़ा किया है। कुछ जनजातियां आज भी सभ्यता से कटी हुई, घासफूस की झोंपडयि़ों में निर्वस्त्र रहते हुए शिकार और वनस्पति के सहारे जीवन व्यतीत कर रही हैं। कल का 'काला पानीÓ आज शहीदों के तीर्थ स्थल के रूप में हमारा प्रेरणास्रोत है। नवनिर्माण के कार्य में लगे वहां के मूल निवासी तथा अन्य राज्यों से आए लोग मिली-जुली संस्कृति का अनोखा उदाहरण है। दैनिक पल-पल के पाठकों की मांग पर इस पुस्तक को लड़ी वार प्रकाशित किया जा रहा है।
अण्डेमान की सामाजिक व्यवस्था एवं संस्कृतिक धरोहर - 2
कैदी बस्ती के प्रारंभिक काल में अधिकांश कैदी उत्तर प्रदेश से आए और अधिकांश कर्मचारी भी उत्तर प्रदेश से ही आए। इसलिए होली, दीपावली यहां तक कि शादी ब्याह के रीति रिवाज भी उत्तर प्रदेश के अपनाए गए। इसी प्रकार हिन्दी, उर्दू के शब्दों के लिए सरल हिन्दुस्तानी अपनायी गयी और बोलचाल में लिंग भेद के क्लिष्ट व्याकरण को तिलांजलि दे दी गई। इससे यह भाषा लोगों के लिए विशेष रूप से दक्षिण भारत के लोगों के लिए सरल बना दी गयी। यदि देश ने कभी एक भाषा को पूरे देश के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया तो वह हिन्दी भाषा का यही स्वरूप होगा जिसे वर्षों के अनुभव व प्रयोग के बाद लोगों ने अपनाया है और जिसे सभी लोग अपनाएंगे। इसमें विश्वास करने के लिए उनका परस्पर वार्तालाप सुनना पर्याप्त प्रमाण है। अत्यंत सफलता से वे इस बोली में बातें करते हैं। यहां तक कि दक्षिण भारत कि बच्चे अपनी मातृ भाषा से अधिक इस नई विकसित हिन्दी बोली में बात करना पसन्द करते हैं । यहां बहुत से संभ्रान्त लोग हैं जिनका जन्म इन भूमिपुत्रों के परिवारों में हुआ। के आर. गणेश, भूतपूर्व मंत्री, भारत सरकार भी इसी श्रेणी में आते हैं। उनके पिता रत्नम यहां पर एक प्रतिष्ठत व्यापारी थे जिनके नाम पर एक बाजार का नाम “रत्नम” मार्किट रखा गया है। भूतपूर्व संसद सदस्य लक्ष्मण सिंह जिनके दादा 1857 के स्वतंत्रता सेनानी थे, वे भी इसी वर्ग के थे।
यह बड़ी उत्साहजनक बात है कि यहां पर धर्म एक व्यक्तिगत आस्था का विषय माना जाता है। अपनी आस्थानुसार लोग मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारा या बौद्ध पैगोडा आदि में जाते हैं, किन्तु सामाजिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है और विभिन्न कट्टर धर्मावलम्बियों के बीच ब्याह होना इन द्वीपों में एक आम बात है। इस प्रकार हिन्दू लड़की का मुसलमान लड़के से तथा मुसलमान लड़की का हिन्दु लड़के से ब्याह करना इन द्वीपों के लिए बहुत साधारण बात है।
एक प्रतिष्ठित परिवार की एक कन्या वहां के भूतपूर्व वरिष्ठ अधिकारी, अतिरिक्त जिलाधीश स्वर्गीय हजरूदीन की पत्नी हैं तथा दूसरी कन्या शान्ता वहां के अन्य वरिष्ठ अधिकारी लक्ष्मण सिंह की पत्नी है। लेखक स्वंय एक ऐसे परिवार से परिचित है जहां पर चार बहनों में से तीन क्रमश: हिन्दू इसाई व मुसलमान युवकों से ब्याही गई हैं। वे सभी सुखी जीवन व्यतीत कर रही हैं। उनमें से चौथी कुंआरी लड़की का कहना है कि होली, ईद व बड़े दिन के सभी त्यौहार परिवार में बड़े उत्साहपूर्वक मनाए जाते हैं। जब लेखक ने उससे प्रश्न किया कि तुम अभी तक कुआंरी क्यों हो तो हंसते हुए उसने कहा कि विभिन्न धर्मों के युवकों से शादी करना इतना प्रेरणादायक है कि वह किसी अन्य नए धर्मावलम्बी युवक से शादी के प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रही है। इस प्रकार का सम्मिश्रण न केवल विभिन्न धर्मों तक सीमित है वरन इसने आंचलिक सीमाओं के बन्धन भी तोड़ दिए हैं और उत्तर भारत व दक्षिण भारत मूल के लोगों के बीच भी शादी ब्याह आम बात बन गई है।
परन्तु आज़ादी के बाद बाहर से आने वालों की विशाल भीड़ ने स्थानीय लोगों का अस्तित्व खतरे में डाल दिया हैं जो सहसा अल्पमत में पहुंचा दिए गए हैं। बाहर से आने वाले लोगों को अपनी जात बिरादरी व अपने अंचल के लोगों के बीच दुल्हन ढूंढने में विशेष कठिनाई नहीं हुई है और इस प्रकार इन द्वीपों की सार्वभौमिकता में अन्तर आने लगा है।
यदि अपनी जाति बिरादरी में ही शादी ब्याह करने की परम्परा उन लोगों द्वारा भी अपनाई गई जो शादी के बाद इन द्वीपों में आए तो इससे निश्चय ही कर्नल वीडन की साठ वर्ष पूर्व की भविष्यवाणी सच हो जायेगी कि "लोकल" की भावी पीढ़ियाँ अछूतों की तरह हीन भावना से देखी जा सकती हैं। अपने अस्तित्व को खतरे में देखकर स्थानीय लोग विचलित हैं और भविष्य के प्रति आशंकित । यहां के शिक्षित बेरोजगार नवयुवक भूमिपुत्र “लोकल” रोजगार के लिए प्राथमिकता देने की मांग लेकर एक मूक आंदोलन के प्रवर्तक बन गए हैं। उन्हें भय है कि बिहार के लोग इन द्वीपों में आकर रोजगार के उनके मूल अधिकारों पर प्रहार कर रहे हैं। उनके अनुसार उनके पूर्वजों ने अपने खून पसीने से इन सुदूर दुर्गम द्वीपों में विकास के रास्ते हमवार किए। प्रतिकूल जलवायु, हिंसक आदिवासियों की अमानुषिकता तथा अंग्रेज अधिकारियों की बैंतो की मार सहकर कैदी बस्ती का निर्माण किया। अब वे अपने ही घर में अजनबी बनने की स्थिति में आ रहे हैं। वे किसी भी तरह दूसरी श्रेणी के नागरिक बनने को तैयार नहीं हैं। इन द्वीपों में लम्बी अवधि तक रहने के बीच लेखक ने इस संबंध में, वहां के बुद्धिजीवियों, जन साधारण, युवाओं, महिलाओं तथा छात्रों से व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से चर्चा की। लेखक को यह जानकर बहुत अचंभा हुआ कि प्रशासन की वर्तमान नीतियों के प्रति उनमें बहुत असन्तोष है क्योंकि उनके अनुसार उनकी जितनी सहायता होनी चाहिए नहीं हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका विश्वास प्राप्त करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं, न उनकी आंतरिक भावनाओं को समझने का प्रयास किया गया है और न ही द्वीपों के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान लिया गया है। सच बात तो यह है कि आजादी के बाद भी इन द्वीपों का प्रशासन अंग्रेजों की औपनिवेशिक पद्धति पर चलता रहा और जनता तथा सरकार के बीच की इस खाई को पाटने का प्रयास मुख्य आयुक्त महाबीर सिंह ने 1980 के आस-पास कुछ हद तक किया।

