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सिरसा का इतिहास : प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा-5

 
सिरसा का इतिहास : प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा-5

सिरसा नगर एक ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों द्वारा समय-समय पर सिरसा के इतिहास के संबंधित अनेक दस्तावेजों को लिखा गया मगर सिरसा के इतिहास के संबंध में एक राय नहीं है कि यह नगर कब व किसने बसाया मगर अनेक इतिहासकारों का मानना है कि ईसा से 1300 वर्ष पूर्व राजा सरस ने सिरसा नगर की स्थापना की। कुछ लोगों का मानना है कि सरस्वती के किनारे होने के कारण इस नगर का नाम सिरसा रखा गया वहीं अनेक लोग बाबा सरसाईंनाथ की नगरी के रुप में सिरसा को जानते हैं मगर प्राचीन नगर के संबंध में अनेक मान्यताएं होने के बावजूद वर्तमान नगर १८३८ में अंग्रेज अधिकारी थोरबाये द्वारा बसाया गया तथा यह नगर जयपुर के नक्शे पर अंग्रेज अधिकारी द्वारा ८ चौपट 16 बाजार के स्थान पर ४ चौपट 8 बाजार स्थापित किए गए। सिरसा के इतिहास से जुड़े विभिन्न पहलुओं को लेकर पल पल के संपादक सुरेन्द्र भाटिया व मनोविज्ञानी डॉ. रविन्द्र पुरी द्वारा वर्ष २०१६ में प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा नामक एक पुस्तक का लेखन किया गया। इस पुस्तक का विमोचन हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल १३ फरवरी २०१६ को चंडीगढ़ में किया गया। पुस्तक की प्रस्तावना नागरिक परिषद के अध्यक्ष व उस समय मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार श्री जगदीश चोपड़ा द्वारा लिखी गई। इसके अतिरिक्त पूर्व?मंत्री स्व. श्री जगदीश नेहरा द्वारा सिरसा तब व अब नामक एक लेख इस पुस्तक में शामिल किया गया। उनके अतिरिक्त नामधारी इतिहासकार चिंतक श्री स्वर्ण सिंह विर्क का एक लेख भी पुस्तक में प्रकाशित किया गया। प्रस्तुत है इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों को क्रमवार प्रकाशित किया जा रहा है।

 मुगलकाल में सिरसा

 राव बीका द्वारा सृजित राजपूत राज्य बीकानेर में सिरसा शामिल था और लगभग इसी समय विदेशी आक्रमणकारी बाबर ने भारत पर हमला बोल दिया। पानीपत के पहले युद्ध से पहले ही युवराज हुमायूं ने हिसार सिरसा के रास्ते पर कब्जा जमा लिया। यह बात 1526 की है। यह क्षेत्र इतना महत्वपूर्ण था कि बाबर ने खुश होकर अपने बेटे को यह क्षेत्र जागीर के रूप में दे दिया। उन्होंने हरियाणा को चार सरकारों में बांट दिया। उस समय सरकार से अभिप्राय प्रशासनिक ईकाई से था। सिरसा को हिसार सरकार के अंतर्गत रखा गया। 1541 में जोधपुर के राजा राव मलदीओ ने अपनी एक बड़ी सेना बीकानेर को जीतने के लिए भेजी बीकानेर का राजा राव जैत सिंह इस आक्रमण का सामना नहीं कर पाया और अपनी जान गंवा बैठा। उसकी सल्तनत का ज्यादातर हिस्सा जोधपुर के राजा ने हथिया लिया। इसी बीच बीकानेर का राज परिवार सिरसा में रहने को आ गया ताकि वे जोधपुर की सेना से बच सकें किंतु बीकानेर के पुराने राजा के बेटे राव कल्याण सिंह अपने राज्य को दोबारा से पाने को बेताब थे। उन्होंने अपने पिता के एक पुराने साथी और पूर्व मंत्री नागराज को राजा शेरशाह के पास भेजा। शेरशाह ने मलदीओ को दबाने के लिए अपनी सेना को भेज दिया और कल्याण सिंह भी अपनी सेना को लेकर मलदीओ को दबाने के लिए कूच कर गए और मलदीओ को अजमेर में हराने में सफलता प्राप्त कर ली। शेरशाह ने बीकानेर का राज्य राव कल्याण सिंह को तोहफे में दिया और हिसार फिरोजा की सरकार में सिरसा को भी शामिल कर लिया। पानीपत का दूसरा युद्ध 1556 में लड़ा गया और अकबर ने बहुत से क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर ली और उनका राज हिसार फिरोजा की सरकार तक पहुंच गया। उस समय हिसार फिरोजा सरकार में 27 महल और 5 दस्तूर थे। उहीं दस्तूरों में से सिरसा भी था। इस प्रकार से एक समय ऐसा भी रहा जब सिरसा पर अकबर का राज सिंहासन था। अकबर शासन के कुछ सिक्के भी खुदाई से मिले थे। 1597 में जावेदी खान ने सिरसा से जोईया भट्टी और राजपूतों को हराकर इस क्षेत्र पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। इस समय शासक ने अपनी सेनाएं जलपत सिंह जोकि बीकानेर के राजा राय सिंह के बेटे थे, उनसे लोहा लेने के लिए भेजी और उन्हें हराकर गिरफ्तार कर लिया गया। इस प्रकार से सिरसा कुछ समय तक बीकानेर के शासन में रहा किंतु बाद में यह दिल्ली सल्तनत से जुड़ गया। किंतु 1707 के बाद कोई भी स्थाई शासन सिरसा में नहीं रहा। शाहजहां के शासन के दौरान शाहजहां स्वयं अपने बेटे दारा के साथ सिरसा आए थे। उस समय वे ख्वाजा अब्दुल शकूर के आश्रम में आए क्योंकि उनका बेटा दारा लंबे समय से ईलाज के बावजूद भी ठीक नहीं हो रहा था। कहा जाता है कि इसी समय शाहजहां अपने बेटे को बाबा सरसांई नाथ जी के मंदिर में लेकर गए और उनके आशीर्वाद से उनका बेटा ठीक होने लगा। कृतज्ञता से भरे शाहजहां ने लालपत्थर से एक गुम्बद भी यहां बनवाया जोकि मुगल वास्तुकला का एक नमूना था और काफी जमीन भी इस मंदिर को दी गई । इसी समय आज के सुभाष चौक में एक जामा मस्जिद का निर्माण भी करवाया गया जिसका श्रेय शाहजहां को जाता है। यह जामा मस्जिद खान लाल खान ने बनवाई थी। यह अपने आप में दिल्ली की जामा मस्जिद से मिलता-जुलता कला का नमूना था। क्योंकि सिरसा काफी लंबे समय बीकानेर राज्य के प्रभाव में रहा इसलिए यहां पर जैन धर्म का है काफी प्रभाव रहा। कई जैन मुनि जैसे कि पहले भी बताया जा चुका कि सिरसा आते-जाते रहते थे। जैन विद्वानों ने बहुत ही कविताएं लिखी और महाराज अंकबर जैन मुनियों से बातचीत करने के लिए और उनसे धर्म पर चर्चा करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। इस प्रकार से यह भी कहा जा सकता है कि 16वीं शताब्दी में यहां पर जैन धर्म का अच्छा-खासा प्रभाव था। 1705 में सिखों के दसवें गुरु मुक्तसर से दिल्ली जा रहे थे। रास्ते में वे सिरसा में रुके और उनके रुकने के स्थान पर आज गुरुद्वारा दसवीं पातशाही स्थित है जिसे न केवल सिख बल्कि सभी धर्मों के लोग पूरी आस्था के साथ मानते हैं। 1774 में पटियाला के सिख शासक अमर सिंह ने राज्य का कार्यभार संभाला। 1777 में एक विशेष समझौते के तहत हांसी, हिसार और रोहतक मुगल शासक के पास रह गये जबकि सिरसा, फतेहाबाद और रानियां पटियाला राज्य के एक भाग बने रहे। दिल्ली के शासकों ने इस क्षेत्र में कई बार अपना प्रभाव डालने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। 1781 में दिल्ली सरकार की तरफ से एक आखिरी कोशिश की गई। पूरी सेना के साथ नजफ अली खान और राजा जय सिंह इस क्षेत्र की ओर बढ़े किंतु सिख शासकों के साथ उनकी एक संधि हुई जिसके तहत हांसी, हिसार, रोहतक, महम और तोशाम को मुगल शासन का ही हिस्सा बने रहने दिया। बाकी का विशेष भाग जिसमें फतेहाबाद व सिरसा आता था, भट्टी शासकों को सौंप दिया गया। 1783 में सिरसा में भयावह अकाल पड़ा। इस समय मोहम्मद अमीम खान रानियां के भट्टी मुखिया थे। उन्होंने इस क्षेत्र पर अपना प्रभाव जमा लिया और उनकी मृत्यु के बाद यह क्षेत्र दो हिस्सों में बांट दिया गया। खान बहादुर खान को फतेहाबाद का क्षेत्र मिला तो वहीं कुमार उद्दीन खान को सिरसा और रानियां का क्षेत्र दिया गया। इधर पटियाला के शासन अमर सिंह की मृत्यु के बाद उनके छोटे अव्यस्क बच्चे को गद्दी सौंप दी गई और नतीजतन उनका प्रभाव इस क्षेत्र में न के बराबर हो गया। उसके बाद सिख इस क्षेत्र को जीत नहीं पाए और भट्टी इस क्षेत्र में बेहद शक्तिशाली होकर उभरे।1782 में दिल्ली साम्राज्य के मिर्जा नजफ अली खान की मृत्यु हो गई और उनके स्थान पर शाह आलम ने राजपाट की बागडोर संभाली किंतु वे उम्र के उस पड़ाव पर थे, जहां पर वे इतने बड़े साम्राज्य को संभाल पाने में असमर्थ महसूस कर रहे थे। इसलिए उन्होंने मराठा प्रमुख महदाजी सिंधिया को सहायता के लिए बुलाया और आपस में एक संधि करके उन्हें सुप्रीम कमांडर के पद पर नियुक्त कर दिया। 1789 में सिंधिया ने साम्राज्य के बिखराव को संभालने की तैयारी शुरू कर दी। इस समय फतेहाबाद, सिरसा, रानियां पर भट्टियों का कब्जा था। उन्होंने उन पर हमला बोला और 1792 में उन्हें पराजित कर दिया। अब हरियाणा की बागडोर भी सिंधिया के हाथ में आ गई। उन्होंने हरियाणा को चार जिलों में बांट दिया और सिरसा को हिसार जिले के अंतर्गत कर दिया। कर वसूली के लिए सैनिक नियुक्त कर दिए गए थे। गांव के स्तर पर भी कर वसूली की व्यवस्था कर दी गई। किंतु यह व्यवस्था लंबे समय तक नहीं चल सकी। 1794 में सिंधिया भी स्वर्ग सिधार गए और उनका 13 वर्षीय भतीजा उनका उत्तराधिकारी बना। यह समय सिरसा के लिए अच्छा समय नहीं था। चारों तरफ अराजकता का माहौल पनपना शुरू हो गया। सन् 1800 के आरंभ में जॉर्ज थॉमस ने सिरसा पर आक्रमण करके भट्टी सरदारों को यहां से निकाल फेंका। जॉर्ज थॉमस को जहाज साहब के नाम से जाना जाता था। उनका जन्म 1758 में हुआ था और वो एक जहाज पर नौकरी करते हुए मद्रास पहुंचे। वे 1793 में मराठा प्रमुख सिंधिया के अंतर्गत काम करने लगे थे। उस समय मराठा प्रमुख आपा खंडे राव थे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद जॉर्ज थॉमस ने राजपाट अपने में ले लिया और 1798 के अंत तक वे हरियाणा का एक बड़ा भाग हथियाने में सफल हो चुके थे। जॉर्ज थॉमस एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे वे आसपास के क्षेत्रों में भी काबिज होने का प्रयत्न कर रहे थे और उनकी महत्वकांक्षाएं आसपास के छोटे राजाओं को पता थी इसलिए आसपास के क्षेत्रों के सिख सैनिकों ने मिलकर अपनी शक्ति बढ़ाई और उन्होंने 1801 में हांसी के पास जॉर्ज थॉमस को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया। इस जीत में सिखों का नेतृत्व मराठा शक्तियों ने भी किया था। इसलिए सिरसा एक बार पुनः मराठा सरदार दौलत राव सिंधिया के हाथ में आ गया। 1783 और 1802 से 1803 के बीच सिरसा को भयावह अकाल से गुजरना पड़ा। खाने की इतनी कमी हो गई कि बहुत से मवेशियों की भूख और प्यास से मौत हो गई। लोग भी मरने लगे। यहां के निवासी अपना घर बार छोड़कर अपना जीवन बचाने को भाग निकले। किंतु आने वाले वर्षों में अच्छी वर्षा के चलते सिरसा क्षेत्र में खुशहाली वापिस लौटने लगी। कुछ लोग वापिस भी आने लगे। किंतु उस समय किसी भी राजा की तरफ से यहां के लोगों को कोई सहायता नहीं दी गई। सभी के मनसूबे यहां के लोगों का आर्थिक शोषण करना था। नतीजतन यहां छोटे सरदार, राजा आपस में लड़ते रहे और अपने आपको शक्तिशाली दिखाने की कोशिश में यहां के सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधा बनते रहे। भट्टी सिखों, मराठों, जाटों, अफगानों और मुगलों के बीच होने वाले हर रोज के झगड़ों के कारण शक्ति के केंद्र कमजोर पड़ने लगे। इस क्षेत्र में उस समय शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं था। ज्यादा शिक्षा ब्राह्मणों द्वारा ही दी जाती थी और लड़कियों की शिक्षा घर पर ही होती थी। इसी समय एक और बड़ा तूफान सिरसा ही नहीं बल्कि पूरे देश को निगलने को बेताब था।