सिरसा का इतिहास : प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा-4

सिरसा नगर एक ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों द्वारा समय-समय पर सिरसा के इतिहास के संबंधित अनेक दस्तावेजों को लिखा गया मगर सिरसा के इतिहास के संबंध में एक राय नहीं है कि यह नगर कब व किसने बसाया मगर अनेक इतिहासकारों का मानना है कि ईसा से 1300 वर्ष पूर्व राजा सरस ने सिरसा नगर की स्थापना की। कुछ लोगों का मानना है कि सरस्वती के किनारे होने के कारण इस नगर का नाम सिरसा रखा गया वहीं अनेक लोग बाबा सरसाईंनाथ की नगरी के रुप में सिरसा को जानते हैं मगर प्राचीन नगर के संबंध में अनेक मान्यताएं होने के बावजूद वर्तमान नगर १८३८ में अंग्रेज अधिकारी थोरबाये द्वारा बसाया गया तथा यह नगर जयपुर के नक्शे पर अंग्रेज अधिकारी द्वारा ८ चौपट 16 बाजार के स्थान पर ४ चौपट 8 बाजार स्थापित किए गए। सिरसा के इतिहास से जुड़े विभिन्न पहलुओं को लेकर पल पल के संपादक सुरेन्द्र भाटिया व मनोविज्ञानी डॉ. रविन्द्र पुरी द्वारा वर्ष २०१६ में प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा नामक एक पुस्तक का लेखन किया गया। इस पुस्तक का विमोचन हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल १३ फरवरी २०१६ को चंडीगढ़ में किया गया। पुस्तक की प्रस्तावना नागरिक परिषद के अध्यक्ष व उस समय मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार श्री जगदीश चोपड़ा द्वारा लिखी गई। इसके अतिरिक्त पूर्व?मंत्री स्व. श्री जगदीश नेहरा द्वारा सिरसा तब व अब नामक एक लेख इस पुस्तक में शामिल किया गया। उनके अतिरिक्त नामधारी इतिहासकार चिंतक श्री स्वर्ण सिंह विर्क का एक लेख भी पुस्तक में प्रकाशित किया गया। प्रस्तुत है इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों को क्रमवार प्रकाशित किया जा रहा है।
सिरसा पर आक्रमणों का दौर
भौगोलिक स्थिति के कारण हरियाणा के इतिहास में भी सिरसा का विशेष स्थान है क्योंकि यह मुलतान और दिल्ली के बीच के रास्ते में पड़ता था और लाहौर से दिल्ली के बीच में भी सिरसा की तरफ से होकर जाना सबसे छोटे रास्ते के रूप में जाना जाता था। दिल्ली तक विभिन्न प्रकार के आक्रमणों को रोकने के लिए बहुत से दुर्ग बनाए गए। उनमें से कुछ दुर्ग सिरसा के बिल्कुल आसपास बनाए गए। उस समय बठिंडा, अबोहर, हनुमानगढ़, हांसी और सिरसा का दुर्गीकरण किया गया। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि सिरसा दिल्ली पहुंचने का एक मुख्य द्वार था। सन 1014 में महमूद गजनवी ने उत्तर भारत पर हमला बोला। यहां उन्होंने बहुत से शहरों को नुकसान पहुंचाया परंतु 1030 में उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे मसूद ने राजपाट संभाला और इसके 7 वर्षों के बाद सुल्तान मसूद ने हरियाणा पर हमला बोला और सिरसा भी उसके निशाने पर आ गया। उस समय सिरसा का दुर्ग कुछ इस प्रकार बनाया गया था कि वहां तक पहुंचना आसान नहीं था। चारों तरफ गढ्ढे खोदकर पानी भरा हुआ था और चारों ओर गन्ने के खेत थे। किंतु मसूद एक बेहद समझदार सैनिक था उसने गन्नों को उखाड़ कर पानी से भरे गढ्ढों में डालकर उनके ऊपर से गुजर कर सिरसा का किला फतेह कर लिया। कुछ समय तक मसूद का बेटा मजदूद इस क्षेत्र का मुख्य बना रहा। इसी बीच तोमर राजाओं ने सिरसा को गजनियों के हाथों से छुड़वा लिया। 12वीं सदी में राजस्थान के चौहानों ने तोमरों के विरूद्ध जंग छेड़ दी और 1156 में चौहानों ने सिरसा पर अपना झंडा फहरा दिया। 1173 में कंवर पाल जो कि एक राजपूत थे, ने सिरसा पर राज किया। उनके कोई बेटा नहीं था और तीन बेटियां ही थी। गौरतलब है कि उनकी एक बेटी गूगा सिंह से ब्याही थी और गूगा सिंह बाद में पीर के नाम से प्रसिद्ध हो गए। आज भी गूगामेडी नामक स्थान पर गूगा सिंह से सबंधित मेला लगता है और उनकी तीसरी बेटी सिरसा में ही रहने लगी। शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने 1186 में लौहार को फतेह कर लिया और वहीं से इन्होंने चौहानों पर हमला बोल दिया। उनका पहला निशाना बठिंडा बना और गौरी के बढ़ते प्रभाव को देखते उस समय के चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय ने गौरी से लोहा लेने की सोची। बठिंडा के नजदीक 1191 में पृथ्वीराज ने गौरी को हरा दिया। किंतु गौरी 1292 में और ज्यादा फौज के साथ आ खड़ा हुआ और पृथ्वीराज को शिकस्त दी। पृथ्वीराज घोड़े पर सवार होकर वहां से भाग निकला किंतु सिरसा में पकड़ा गया। उस समय सिरसा को सरसुती के नाम से जाना जाता था और इस प्रकार से शिहाबुद्दीन ने कई अन्य स्थानों के साथ साथ सिरसा पर भी अपना कब्जा जमा लिया। इतिहासकारों का मानना है कि उस समय सिरसा के लोगों ने अफगान सेना के साथ बहादुरी से लोहा लिया, किंतु वे हार गए। शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी की 1206 में मृत्यु हो गई और उनके सेनापति कुतुबद्दीन ऐबक ने अपने आपको एक स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। उन्होंने प्रशासन को चलाने के लिए कई जगह चौंकियां स्थापित की जहां पर सेना एक दरोगा के अधीन कार्य करती थी। ऐसी ही एक चौंकी सिरसा को बनाया गया। कुतुबद्दीन की मृत्यु के बाद इलतुतामिश ने राज संभाला किंतु निसीरूद्दीन जो कि ऐबक के दामाद थे, ने सुल्तान के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और सिरसा पर अपना हक जमा लिया। 1228 में सुल्तान इलतुतामिश ने सिरसा पर धावा बोल दिया और निसीरूद्दीन को हरा दिया। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि उस समय इलतुतामिश ने अपनी सल्तनत को उच्च प्रशासनिक ईकाईयों में बांट रखा था और प्रत्येक ईकाई को इकता कहा जाता था और सिरसा इतना महत्वपूर्ण इकता था कि सुल्तान ने उसे संभालने को लिए अपने दो-दो अधिकारियों को जिम्मा सौंप रखा था। दिल्ली जाने के रास्ते में सिरसा एक महत्वपूर्ण स्थान के रूप में माना जाता था और इसी लिए जितने भी आक्रमणकारी भारत में आए उनमें से अधिकतर ने सिरसा पर धावा अवश्य बोला क्योंकि दिल्ली जाने के रास्ते में सिरसा एक बड़े स्थान के रूप में जाना जाता है। सिरसा पर अधिक हमले होने का एक अन्य कारण यहां कि अधिक उपज भी थी। उस समय भारत आए एक अफगानी यात्री ने अपने संस्मरणों में लिखा था कि यहां चावल इतने बढ़िया प्रकार के पाए जाते हैं कि उनका निर्यात दिल्ली तक किया जाता है। इस का अभिप्राय है कि लगभग 1333 के आसपास सिरसा में अच्छे धान की पैदावार काफी मात्रा में होती थी। 1354 में सुल्तान सुल्तान फिरोज तुगलक ने हिसार फिरोजा का गठन किया। यह हांसी, अग्रोहा, फतेहाबाद, सिरसा आदि जगहों को मिलाकर एक अलग से प्रशासनिक ब्रांच बनाई गई थी और इसी समय उन्होंने सिरसा की थोड़ी दूरी पर फिरोजाबाद हरणीखेड़ा नामक एक छोटे कस्बे को विकसित किया। सुल्तान फिरोज चाहते थे कि इस क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था अच्छी हो इस लिए उन्होंने 5 नहरें खुदवाई और यह नहरें सिरसा दुर्ग से होकर फिरोजाबाद तक पहुंचती थी। 1388 में सुल्तान फिरोज की मृत्यु हो गई। इसी बीच समरकंद के राजा अमीर तमुर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वह पंजाब से राजस्थान की तरफ बढ़ा और रास्ते में आने वाले सभी कस्बों को तहस-नहस करता आया। यहां से वह हरियाणा की ओर बढ़ा। इतिहासकार बताते हैं कि सिरसा के पास पड़ने वाली तलवाड़ा झील के किनारे पर अमीर ने कुछ समय बिताया और उसने इसे काफी पसंद भी किया और यहीं से निकलने के बाद सिरसा के दुर्ग को जीता। बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वह सरसुती नामक स्थान पर गए, जहां पर उन्होंने गन्ने की बेहतरीन फसल देखी, किंतु जब उन्होंने यह देखा कि ज्यादातर लोग इस्लाम से वाकिफ नहीं है तो उन्होंने इस इलाके को तहस-नहस कर दिया। नतीजतन इस शहर में अच्छी फसल न होने के कारण अकाल पड़ गया और हजारों लोग व जानवर मारे गए। यह समय सिरसा के लिए बहुत ही बुरा था। 1488 में जोधपुर के राजा राव जोधा के बेटे राव बीका ने अपने नाम से बीकानेर नामक अलग राज्य बनाया और इसमें सिरसा को भी शामिल किया। परिणामस्वरूप यहां पर बहुत सी व्यापारिक गतिविधियां होने लगी। यहां पर चावल, गन्ना और कपास भारी मात्रा में पैदा होता था इस समय सिरसा अन्धेरे के गर्त से निकलकर एक सम्पन्न इलाके के रूप में निखरने लगा। इसी दौरान सिरसा में एक सूफी संप्रदाय भी विकसित होने लगा और ख्वाजा कुतुबद्दीन जो कि एक सूफी संत थे, ने शेख फरीद को अपनी शिक्षाओं को फैलाने के लिए नियुक्त किया और सिरसा के रानियां गेट के पास ख्वाजा अब्दुल शकुर ने इसी संप्रदाय की नींव रखी। सिरसा में काफी पुराने समय से अध्यात्मिक गुरूओं की रूचि रही हैं। जैन धर्म के बहुत से ऋषि मुनी यहां आते रहे हैं और जैन धर्म को यहां मानने वाले लोग काफी संख्या में थे। इन्हीं वर्षों में गुरूनानक देव जी भी अपनी दूसरी उदासी (धार्मिक यात्रा) पर 1506 में सिरसा में आए थे। गुरूनानक देव जी के धार्मिक प्रवचनों के समय ख्वाजा अब्दुल शकुर और जैन मुनी लाल जी और अजाबा जी भी उपस्थित रहते थे। यहीं पर गुरुनानक देव जी ने चालीस दिनों का व्रत रखा था, जिसे चिल्ला कहा जाता था और बाद में यहां पर चिल्ला साहिब गुरुद्वारा स्थापित हुआ।

