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सिरसा का इतिहास : प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा-23

लेखक एवं संकलन सुरेन्द्र भाटिया व डॉ. रविन्द्र पुरी
 
सिरसा का इतिहास : प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा-23

इतिहास समाज को संस्कृति व विकास की जानकारी देता है 

सिरसा नगर एक ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों द्वारा समय-समय पर सिरसा के इतिहास के संबंधित अनेक दस्तावेजों को लिखा गया मगर सिरसा के इतिहास के संबंध में एक राय नहीं है कि यह नगर कब व किसने बसाया मगर अनेक इतिहासकारों का मानना है कि ईसा से १३०० वर्ष पूर्व राजा सरस ने सिरसा नगर की स्थापना की। कुछ लोगों का मानना है कि सरस्वती के किनारे होने के कारण इस नगर का नाम सिरसा रखा गया वहीं अनेक लोग बाबा सरसाईंनाथ की नगरी के रुप में सिरसा को जानते हैं मगर प्राचीन नगर के संबंध में अनेक मान्यताएं होने के बावजूद वर्तमान नगर १८३८ में अंग्रेज अधिकारी थोरबाये द्वारा बसाया गया तथा यह नगर जयपुर के नक्शे पर अंग्रेज अधिकारी द्वारा ८ चौपट 16 बाजार के स्थान पर ४ चौपट 8 बाजार स्थापित किए गए। सिरसा के इतिहास से जुड़े विभिन्न पहलुओं को लेकर पल पल के संपादक सुरेन्द्र भाटिया व मनोविज्ञानी डॉ. रविन्द्र पुरी द्वारा वर्ष २०१६ में प्राचीन एवं आधुनिक सिरसा नामक एक पुस्तक का लेखन किया गया। इस पुस्तक का विमोचन हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल १३ फरवरी २०१६ को चंडीगढ़ में किया गया। पुस्तक की प्रस्तावना नागरिक परिषद के अध्यक्ष व उस समय मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार श्री जगदीश चोपड़ा द्वारा लिखी गई। इसके अतिरिक्त पूर्व मंत्री स्व. श्री जगदीश नेहरा द्वारा सिरसा तब व अब नामक एक लेख इस पुस्तक में शामिल किया गया। उनके अतिरिक्त नामधारी इतिहासकार चिंतक श्री स्वर्ण सिंह विर्क का एक लेख भी पुस्तक में प्रकाशित किया गया। प्रस्तुत है इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों को क्रमवार प्रकाशित किया जा रहा है।

बाबा सरसाई नाथ के शिष्य थे राजा सरकट

नगर की ऐतिहासिक स्थिति के ज्ञानार्थ जहां आप्त पुरूषों से मिलना पड़ा, वहां प्रसिद्ध स्थानों के अधिष्ठाताओं से भी सामुख्य करना पड़ा। गुरू गोरखनाथ जी नाथ सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक थे। आप योग (हठयोग) के पारंगत तथा सिद्धि सम्पन्न सिद्ध थे। आपकी शिष्य परंपरा में ही बाबा सरसाईं नाथ जी हुए है। 'साधू तो रमता भला' के अनुसार न जाने आप कब राजा-सर कट के युग में इस नगर के पूर्व भाग में स्थित जोहड़ (जोगी जोहड़) पर रमते हुए आ टिके। जाट इतिहास (बा.अ. समिति में देखे) के अनुसार राजा सरकट (कप) प्रतिदिन चौसर (चौपड़) खेला करते थे और हारने वाले का सर काट लेते थे, यह राजा का उपनाम मालूम होता है या जनता द्वारा दी गई उपाधि प्रतीत होती है। असल नाम क्या था? इस विषय में इतिहास क जनश्रुति दोनों मौन हैं। जाट इतिहासकार ने इसे केवल दंत कथा माना है, परन्तु बाबा सरसाईं नाथ की शिष्य परम्परा में दीक्षित वर्तमान नाथ बालक नाथ जी के कथनानुसार राजा सरकट-बाबा सरसाईंनाथ जी का चेला था और राजकुमार भी बाबा जी का चेला था, जिसकी समाधि डेरे की समाधियों में अधावधि वर्तमान है। गुरू परम्परा विश्रुत यह वृत्तांत यदि सही हो तो राजा सरकट का समय हुमायूं के समकाल प्रतीत होता है। अकबर के समय के सिक्के तो थेह(ड़) की ऊपरी सतह पर सामान्य वर्षा में ही प्राप्त हो जाते हैं। अतः यह सिद्ध है कि अकबर के शासन के बाद ही यह थेह(ड़) बना है। थेह(ड़) बनने का कारण चाहे अत्याधिक वर्षा से आने वाला जल हो, जो कि अग्रोहा फतेहाबाद की रोहियों से वर्तमान भादरा जोहड़ तक अब भी आता है, उस समय संभवतः ग्राम संख्या कम होने के कारण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर सतह (धरातल) के निम्न होने के कारण अंतः सलिल सरस्वती के ही शुष्क मार्ग से वर्षान्तका जल किसी मूसलाधार झड़ी के रूप में प्रलय मेघ बनकर नगर को थेह(ड़) बनाने का कारण बना हो या किसी साधु के दुःश्राप के कारण। अग्रोहा के थेह के बारे में भी साधु के दुराशीष की किवदन्ती प्रचलित है, परन्तु भारत भ्रमण (मोहतों की लाईब्रेरी में है) नामक पुस्तक के अनुसार अकाल या इति ही नगर के उजड़ने का कारण है। बाबा सरसाईंनाथ के बाद लगभग दस पीढ़ियां इस डेरे में शिष्यों की रह चुकी है। यदि प्रत्येक पीढ़ी के लिए पचास वर्ष मध्यमान माने जाएं (क्योंकि पूर्व कालिक कई सिद्ध शत्वर्षाधिक भी जीवित रहे) तो यह लगभग हजार वर्ष या सात सौ वर्ष का समय बनता है, जब इस डेरे की स्थापना हुई। अनुमानतः यह काल सही भी है क्योंकि जो कागजात डेरे में भूमि विषयक उपलब्ध हैं वे फारसी में लिखित हैं तथा बादशाह शाहजहां के समय की मुहर से अंकित हैं। (बाबा बालक नाथ जी ने छः फरदें शाहजहां कालीन लेखक को दिखलाई थी, उन्होंने ताम्रपत्र भी कुछ बतलाए थे परन्तु गुरू जी की अनुपस्थिति के कारण दिखला ना सके पाठक इस तथ्य को डेरे में जाकर प्रमाणित कर सकते हैं- लेखक) जैसा कि बताया गया है कि ये कागजात बाबा गंगाईनाथ ने, जो कि बाबा सरसाई नाथ के पद शिष्यों के शाहजहां के समय में अपने शिष्यों की सुगमता के लिए अंतिम समय बनवाए थे, इस प्रकार शाहजहां बादशाह से दो पीढ़ी (लगभग दो सौ वर्ष) पूर्व वर्तमान डेरे की उपस्थिति ज्ञात होती है। अतः डेरा बनने तथा भूमि प्राप्त होने के लिए भी पचास साठ वर्ष अपेक्षित हैं। बाबा सरसाईंनाथ जब प्रथम बार यहां पधारे थे तो जोहड़ की 'पाल' पर ही धूना रमाया था। बाद के चमत्कारों ने उनको प्रसिद्धि दी और डेरा बना। अतः हुमायूं का समय निश्चित रूप से डेरे की शिलान्यास वेला का साक्षी है (संभवतः ताम्रपत्रों में कुछ उल्लेख हों) शाहजहां कालीन कागजात में परगना सरसा के साथ हिसार का भी उल्लेख है। आईने अकबरी के अनुसार हिसार अकबर कालीन जिला था जो कि शाहजहां के समय तक भी यथापूर्व रहा है। बाबा कमाईनाथ से पूर्व वर्तमान डेरा लगभग 50-60 वर्ष उजाड़ रहा। नगर पालिका से प्राप्त लेख तथा भारत भ्रमण के अनुसार 1783 के भीषण अकाल (जो निरंतर सात वर्ष पड़ता रहा) के बाद नगर 1837 तक उजाड़ ही रहा। यह 45-50 वर्ष का उज्जड़ समय ही डेरे के निर्जन होने का कारण रहा है। बाबा कमाई नाथ जी 1888 सं. में समाधिस्थ हुए। डेरे की भूमि के बारे में आपका नगर पालिका के साथ कुछ झगड़ा हुआ था। वर्तमान नगर पालिका का निर्माण 1867 ई. में हुआ अतः यह 80 वर्ष पूर्व का झगड़ा बाबा कमाई नाथ के उजाड़ डेरे पर आकर अधिकार प्राप्त करने के लिए ही हुआ संभव है। डेरे का वर्तमान भवन भी बाबा कमाई नाथ की मेहनत का फल है क्योंकि इसमें की गई चित्रकारी में ऊंट हाथी, घोड़ों के साथ रेल (सिग्नल सहित) का भी चित्र है।

नगर में बाबा के अनेक भक्त हैं और प्रतिवर्ष समाधि पर मेला. लगने के साथ-साथ चढ़ावा भी चढ़ता है। बाबा जी के चमत्कारों की अनेक घटनाएं कर्ण कर्णिकथा प्रचलित है उनमें से एक घटना अन्यन (श्री गोपाल जी द्वारा लिखित) उसी की भूमिका स्वरूप निम्न घटना चमत्कार भी बहुश्रुत है बठिंडा जब भाटी (नवाबों) शासन के आधीन था तब एक मुस्लिम संत ख्वाजापीर की मान्यता सारे भटियाणा प्रदेश में थी। (भिवानी से भटनेर तक का प्रांत भाग भटियाणा नाम से विख्यात था) पीर के मुरशिद (शिष्य) लोग अन्न निकालने के समय पीर का भाग अलग निकालकर रख देते थे और पीर जी के वशीकृत जिन्न भूत उस अन्न को आकाश मार्ग से पीर की दरगाह पर ले जाते थे। एक बार जब जिन्न गेहूं की राशि को सरसा के ऊपर से उड़ाए ले जा रहे थे तो कुछ दाने बाबा के डेरे में गिर पड़े। डेरे में स्थित श्रद्धालु भक्तों के पूछने पर बाबा ने कहा कि पीर के जिन्न गेहूं ले जा रहे हैं। भक्त बोले तो बाबा जी आधी अपने यहां आनी चाहिए। इस पर बाबा हंसकर बोले 'क्या करोगे?' परन्तु अनुरोध करने पर अपने सिद्धि बल द्वारा आधी गेंहू डेरे में डलवा ली। पीर ने अपने जिन्नों से जब सुना कि एक हिन्दू बाबा ने इस प्रकार अन्न का अपहरण किया है तो क्रोध और दर्प से अभिभूत होकर सांप का कोरड़ा (चाबुक) ले और शेर पर सवार होकर बदले की भावना से बाबा के डेरे की ओर आया। बाबा दीवार पर बैठे दातुन कर रहे थे। अतः उसी को चलाकर स्वागतार्थ आगे बढ़े। पीर का दर्प और क्रोध इतने मात्र से ही हवा हो गया अंत में पीर ने पराजय मानी और अपने लिए स्थान मांगा। बाबा ने पश्चिम में मीलभर परे का स्थान दिया। (खाजाखेड़ा नामक गांव तथा डाबर के पास की दरगाह इसका प्रमाण हैं)