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'अंदर-बाहर' भारी विरोध के चलते तंवर व समर्थक मायूस

 दौड़ में बने रहने की भाजपा प्रत्याशी की उम्मीद टूटी
 
 'अंदर-बाहर' भारी विरोध के चलते तंवर व समर्थक मायूस
 मोदी नाम की 'संजीवनी' का भी लाभ मिलता दिखाई नहीं दे रहा तंवर को
 काम-व्यवहार से मतदाताओं का दिल जीत रहीं सैलजा

गांव-कस्बों में सैलजा का जोश से तो तंवर का काले झंडों से हो रहा स्वागत 

नौ बार सिरसा संसदीय सीट पर जीत का परचम लहरा चुकी है कांग्रेस

सिरसा। सिरसा लोकसभा सीट पर चुनाव प्रचार चरम पर पहुंच गया है। मतदान में केवल चार दिन बचे हैं। भीड़ व मतदाताओं के रुझान से तस्वीर साफ होती दिखाई देने लगी है। कांग्रेस खेमे का उत्साह कुमारी सैलजा के लगातार बढ़ते ग्राफ का परिचय दे रहा है जबकि हाल  ही में आम आदमी पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल होने वाले अशोक तंवर पार्टी के अंदर और बाहर निरंतर बढ़ते  विरोध के चलते पस्त दिखाई दे रहे हैं। उनके समर्थकों की दौड़ में बने रहने की आस भी    मीलों पीछे छूटती दिखाई दे रही है।

सिरसा लोकसभा सीट 

अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। यह सीट पहली बार 1962 में अस्तित्व में आई थी। इस पर कांग्रेस ने 09 बार जीत का परचम लहराया है जबकि  भाजपा ने पहली बार 2019 में जीत हासिल की थी। कह सकते हैं कि भाजपा ने पहली बार खाता खोला था।  सिरसा चौ.देवीलाल की राजनीतिक भूमि रही है। पूर्व मुख्यमंत्री और इनेलो अध्यक्ष चौ.ओमप्रकाश चौटाला का यह गृह क्षेत्र है और यह इनेलो का गढ़ भी रहा है। इनेलो ने यहां से चार बार जीत हासिल की है। यहां से कई ऐसे नेता निकले हैं, जिनकी भारतीय राजनीति में एक अलग पहचान रही। सिरसा ने करीब-करीब सभी पार्टियों को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया है। इनेलो से संदीप लोट तो जजपा से रमेश खटक उम्मीदवार हैं पर मुख्य मुकाबला भाजपा के डा. अशोक तंवर और कांग्रेस की कुमारी सैलजा के बीच ही है। इनेलो और  जजपा केवल तंवर और सैलजा के बीच हार-जीत का अंतर घटाने और बढ़ाने का काम करते दिख रहे हैं।  पूरे संसदीय क्षेत्र में सैलजा का नाम और काम बोलता है। सैलजा और उनके पिता चौ.दलबीर सिंह ने इस क्षेत्र के लिए जो कुछ किया, लोगों को अभी तक याद है। यही सैलजा की मजबूती का आधार है, उनकी व्यक्तिगत छवि और उनका व्यवहार आज भी लोगों का दिल जीत रहा है। समर्थकों का कहना है कि पार्टी के प्रति सैलजा की निष्ठा बरगद जैसी शाश्वत- स्थायी है। व्यवहार की सौम्यता उन्हें तुलसी की तरह पवित्र व सर्वकल्याणकारी रूप दे रही है।

उधर एक  बार सांसद रहकर भी डा. अशोक तंवर लोगों के दिलों को छू तक नहीं पाए, उनकी राजनीति सीमित दायरे में ही सिकुड़कर रह गई। यही वजह है कि आज लोग भाजपा का उतना विरोध नहीं कर रहे, जितना तंवर का कर रहे हैं। बार-बार दल बदलने से उनकी छवि खराब हुई है। अब तो बस उन्हें मोदी के नाम का ही सहारा है। विचारणीय विषय यह बन गया है कि खुद भाजपा नेताओं पर आरोप लग रहे हैं कि वे मन से तंवर के साथ नहीं हैं।

  वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की   सुनीता दुग्गल यहां से सांसद बनीं थीं जिन्होंने हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को भारी मतों हराया था।  सुनीता को 52 फीसदी से अधिक वोट मिले थे। सुनीता दुग्गल ने पहली बार सिरसा सीट पर भाजपा का खाता खोला था और सिरसा में जीत का रिकार्ड भी बनाया। उनकी इस बड़ी जीत के पीछे मोदी लहर थी।  आज उनका टिकट काटकर तंवर को थमा दी गई, वे अपना दर्द भी सीने में दबाए घूम रही हैं। एक बार तो मंच पर उनकी पीड़ा जुबान पर आ भी गई और भावावेश में बोल उठीं कि अपनी तो टिकट भी गई और नौकरी भी। 

इस सीट पर आधिकारिक रूप से तंवर पहले उम्मीदवार थे जिनके नाम की घोषणा हुई, कांग्रेस, इनेलो और जजपा ने नाम देरी से घोषित किए। जब सैलजा के नाम पर विचार चल रहा था तो लोगों ने हाईकमान पर सैलजा को टिकट देने का दबाव बनाया। नाम घोषित होने से पहले ही इस संसदीय क्षेत्र में लोगों की जुबान पर एक बात थी कि अगर सैलजा आईं तो जीतेंगी वही, यानि मनोवैज्ञानिक रूप से सैलजा भाजपा पर पूरा दबाव बना चुकी हैं। उन्होंने सभी नौ विधानसभा क्षेत्रों में धुंआधार प्रचार अभियान छेड़ा हुआ है। उनकी सभाओं में बढ़ती भीड़ ने भाजपा का ब्लड प्रेशर बढ़ाया हुआ है।

सैलजा को लेकर भाजपा गंभीर है, भाजपा हाईकमान खुद मान रहा है कि सीट पर  कड़ा मुकाबला है, आरएसएस की टीम को मैदान में उतारा जा रहा है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सभा तक करवानी पड़ रही है। उसके बड़े नेता दिन रात एक किए हुए हैं,मुख्यमंत्री नायब सैनी और पूर्व सीएम मनोहरलाल ने तो सिरसा में जैसे डेरा ही डाल लिया है। तंवर को टिकट देते समय भाजपा ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इतने विरोध का सामना करना पड़ेगा। तंवर आज जिस भी गांव में जाते हैं, काले झंडे लेकर किसान सामने खड़े होते हैं। तंवर के कार्यक्रमों में कोई व्यवधान न हो, इसके लिए पूरा पुलिस बल साथ रहता है। रानियां क्षेत्र में जो हुआ, वह भी तंवर के लिए अच्छा नहीं हुआ। विरोध अपनी जगह है पर किसी पर हमला नहीं होना चाहिए। इस मामले में 40 किसानों पर केस दर्ज हुआ।  यह मामला कोढ़ में खाज की तरह तंवर को परेशान करेगा। किसानों की टीम जिस प्रकार गांवों में जाकर काम कर रही है, उससे भाजपा के चुनाव अभियान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी माना जा रहा है। 

उधर कुमारी सैलजा का सिरसा से सांसद बने 25 साल का अरसा बीत गया है पर न केवल कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बल्कि विरोधी पार्टी के कार्यकर्ताओं में भी वे अब तक अपनी पैठ बरकरार रखे हुए हैं। लोगों के दुख-सुख में शामिल होने के अलावा कुमारी सैलजा ने समय-समय पर सिरसा आकर अपनी उपस्थिति रखी। अब पिछले कई माह से वे सिरसा लोकसभा क्षेत्र में सक्रिय हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मांग पर ही उन्हें पार्टी उम्मीदवार बना कर मैदान में उतारा गया है।   सैलजा को कांग्रेस ने उनके पिता चौ. दलबीर सिंह के निधन के बाद सिरसा लोक सभा सीट से 1988 में चुनाव मैदान में उतारा था पर वे हार गई थीं। उसके बाद 1989 में कांग्रेस ने चौ. मनी राम केहरवाला को मैदान में उतारा। फिर 1991 में राजीव गांधी के हस्तक्षेप से कुमारी सैलजा को कांग्रेस ने सिरसा से मैदान में उतारा और वे चुनाव जीतीं। वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में जब प्रदेश में कांग्रेस को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था जिसमें चार उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी, तब सिरसा से कुमारी सैलजा को विजयश्री प्राप्त हुई थी। तब से लेकर अब तक कुमारी सैलजा ने कार्यकर्ताओं में अपनी पकड़ को बरकरार रखा है। यही कारण है कि  यहां के कार्यकर्ता कुमारी सैलजा के साथ खड़े हुए हैं। सिरसा लोकसभा सीट से कुमारी सैलजा के पिता चौ. दलबीर सिंह 1967, 1971, 1980 व 1984 में सांसद बने थे। इसलिए यहां से कुमारी सैलजा का नाता पुराना है। कुमारी सैलजा को 1991 व 1996 में सिरसा लोकसभा सेे जीत मिली थी। उधर मौजूदा भाजपा उम्मीदवार  डा. अशोक तंवर ने 2009 का लोकसभा चुनाव सिरसा सीट से लड़ा और अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी इनेलो के  डा. सीता राम को 35499 मतों के अंतर से हराया था। 2014 में डा. अशोक तंवर इस सीट पर इनेलो के चरणजीत सिंह रोड़ी से हार गए थे। 2019 में उनको भाजपा प्रत्याशी सुनीता दुग्गल ने हराया था।

सिरसा में सैलजा के काम बोलते हैं

कुमारी सैलजा जब सिरसा से सांसद रहीं तो उनके समक्ष एक समस्या आई कि सिरसा में रेलवे लाइन तो है पर छोटी (मीटरगेज) है जिसके कारण देश के दूसरे हिस्सों से रेलवे कनेक्टिविटी नहीं हो पा रही है, उन्होंने सांसद रहते इस 180 किमी लाइन को बड़ी (ब्रॉडगेज) लाइन में तब्दील करवाया। इसके बाद ही इस ट्रैक पर ट्रेनों और मालगाड़ियों की संख्या बढ़ी। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कहने को एक जिले में एक ही केंद्रीय विद्यालय होता है पर सिरसा में दो स्थापित हुए। पहला वायुसेना केंद्र परिसर में है तो दूसरा कंगनपुर रोड पर है।  उच्च शिक्षा को ध्यान में रखते हुए कुरूक्षेत्र विश्व विद्यालय का रिजनल सेंटर उन्होंने गांव फूलकां में खुलवाया जिसका भवन आज भी मौजूद है और यही 

रिजनल सेंटर आगे चलकर चौ.देवीलाल विश्वविद्यालय में बदला। सैलजा ने खेलों को बढ़ावा दिया। चौ.दलबीर सिंह इंडोर स्टेडियम आज प्रदेश का सबसे बड़ा इंडोर स्टेडियम है। हॉकी को बढ़ावा देने के लिए रानियां क्षेत्र में स्टेडियम बनवाया। सीएमके नेशनल कालेज में सोमनाथ गंडा सभागार का निर्माण करवाया। 

पिता-पुत्री के नाम है सबसे अधिक बार सांसद बनने का रिकॉर्ड

 एक खास रिकॉर्ड यह है कि इस सीट से सबसे अधिक तीन बार महिलाओं को लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। 1991 और 1996 में कुमारी सैलजा तो साल 2019 में सुनीता दुग्गल सांसद चुनी गईं। सिरसा लोकसभा सीट से कुमारी सैलजा के पिता चौ. दलबीर सिंह 1967, 1971, 1980 व 1984 में सांसद बने थे।

पंजाबी बेल्ट में कांग्रेस दिख रही है हावी

सिरसा संसदीय क्षेत्र पंजाबी और बागड़ी बेल्ट में बंटा हुआ है, मौजूदा समय में पंजाब बेल्ट में कुमारी सैलजा तंवर पर काफी हावी हैं, नामधारी बेल्ट में भी सैलजा प्रभावी दिख रही हैं, बागड़ी बेल्ट में  वोट भाजपा, कांग्रेस और इनेलो के बीच वोट बंटता हुआ दिखाई दे रहा है। कुछ वोट जेजेपी भी काटेगी। 

डबवाली विधानसभा क्षेत्र में वरिष्ठ कांग्रेस नेता डा. केवी सिंह और उनके विधायक पुत्र अमित सिहाग ने पूरा जोर लगाया हुआ है। कालांवाली विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस का विधायक है यहां भी कांग्रेस मजबूत दिखाई दे रही है। नरवाना में रणदीप सिंह सुरजेवाला ने पूरा जोर लगाया हुआ है तो फतेहाबाद जिले की रतिया, टोहाना और फतेहाबाद विधानसभा सीटों पर भी कांग्रेस मजबूती के साथ खड़ी है। 

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सिरसा से अब तक बने सांसद

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1967 दलबीर सिंह (कांग्रेस)

1971 दलबीर सिंह (कांग्रेस)

1977 चांदराम (जनता पार्टी)

1980 दलबीर सिंह (कांग्रेस)

1984 दलबीर सिंह (कांग्रेस)

1989 हेतराम (जनता दल)

1991 कुमारी सैलजा (कांग्रेस)

1996 कुमारी सैलजा (कांग्रेस)

1998 डॉ. सुशील इंदौरा (हलोदरा)

1999 डॉ. सुशील इंदौरा (इनेलो)

2004 आत्मा सिंह गिल (कांग्रेस)

2009 डॉ. अशोक तंवर (कांग्रेस)

2014 चरणजीत रोड़ी (इनेलो)

2019 सुनीता दुग्गल (भाजपा)

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