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“भगवान्‌ के जीवंत विग्रह” – स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि (168वें आविर्भाव दिवस के उपलक्ष्य में)

 
“भगवान्‌ के जीवंत विग्रह” – स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि (168वें आविर्भाव दिवस के उपलक्ष्य में)

“सत्य का मूल तत्त्व, सर्वव्यापक भौतिक स्वरूप में विद्यमान होते हुए भी, उनसे आत्मा के सौरभ की तरह निसृत होता था। मुझे सदा इस बात का आभास था कि मैं भगवान्‌ के जीवंत विग्रह के सान्निध्य में हूँ।“ आध्यात्मिक गौरव ग्रंथ योगी कथामृत के रचयिता श्री श्री परमहंस योगानन्द के ये शब्द हमें एक ऐसे संत से परिचित कराते हैं जो ज्ञान के अतुलनीय भंडार थे। अपने ज्ञान की गहनता और स्वभाविकता के कारण उन्हें ज्ञानवतार के रूप में जाना जाता है। 

बंगाल के एक साधारण से आश्रम में वास करने वाले इन ईश्वर प्राप्त गुरु का जन्म 10 मई 1855 को हुआ था। उन्होने दस वर्ष से भी अधिक समय तक अपने आश्रम में प्रशिक्षण देकर बालक मुकुन्द को योगानन्द में रूपांतरित कर उन्हें ईश्वरानवेषियों की क्षुधा को शांत करने हेतु योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया/सेल्फ़ रियलाईज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना करने का आदेश दिया जहाँ पर योगदा पाठमाला सदस्यता में पंजीकरण कराकर ध्यान की उन्नत प्रविधि क्रियायोग को सीखा जा सकता है।   

ईश्वर के साथ सदा एकरूप रहने के कारण, उन्हें ध्यान के लिए अलग से समय निकालने की आवश्यकता नहीं होती थी। वे सृष्टि नियंता के साथ एक थे। वे मित्तभाषी और पूर्णतया आडंबर रहित थे। उनका मौन रहना उनकी अनंत ब्रह्म की गहन अनुभूति के कारण था। किन्तु वे कभी भी अपनी ईश्वरानुभूतियों और दिव्य अंतर्दृष्टि द्वारा चमत्कारी प्रदर्शन नहीं करते थे। उनके सरल एवं आडंबरहीन आचरण के कारण उनके समकालीन लोगों में से बहुत कम ही उनके अवतार सदृश्य जीवन को पहचान सके।चेतना की इतनी उन्नत अवस्था में होते हुए भी वे अपने दृष्टिकोण में अत्यंत ही व्यवहारिकता का प्रदर्शन करते थे। रोगी हो जाने पर अपने शिष्यों को डॉक्टर के पास जाने के लिए कहते थे, यद्यपि उनके पास रोग निवारक शक्तियों का भंडार था। वे कहते - “डॉक्टरों को भौतिक पदार्थों के लिए निर्धारित ईश्वरीय नियमों के अनुसार अपना चिकित्सा कार्य करना चाहिए।“ डॉक्टरों से श्रीयुक्तेश्वरजी यह भी कहते थे, “जिन्होने शरीर विज्ञान का अध्ययन किया है, उन्हें आगे चलकर आत्म विज्ञान का अध्ययन करना चाहिए। शरीर की यंत्रावली के पीछे एक सूक्ष्म आध्यात्मिक रचना छिपी है।“ तथापि मानसिक शक्ति के द्वारा रोग निवारण को वे अधिक श्रेष्ठ मानते थे। 

“उचित व्यवहार करना सीखो” की सरल उक्ति में वे पतंजलि के अष्टांगयोग के अति महत्त्वपूर्ण प्रथम दो चरणों - यम और नियम का पालन कर देह और मन को ध्यान के लिए तैयार करने की बात कहते। वे स्वयं अति अनुशासन प्रिय और अपने शिष्यों के प्रति कठोर थे। थोड़ा सा भी अवधान या थोड़ी सी भी असंगति होने पर उनकी डांट फटकार से बचना असंभव था। भौतिक देह का त्याग कर पुनः एक नए शरीर की सृष्टि कर उन्होने योगानन्दजी के समक्ष प्रकट होकर सूक्ष्म लोकों में सबसे उन्नत लोक जिसे हिरण्यलोक कहते हैं, के विषय में बताया। उसी सूक्ष्म लोक में रहने वालों को मुक्त करने का आदेश श्रीयुक्तेश्वरजी को मिला है। मृत्योपरांत पृथ्वीलोक से परे की गुत्थी को सुलझाने में सक्षम ‘योगी कथामृत’ के अध्याय – ‘श्रीयुक्तेश्वरजी का पुनरुत्थान’ को पढ़कर पाठक समझने लगता है की जीवन कोई पहेली नहीं अपितु आत्मा की निरंतर यात्रा है जो अपने स्त्रोत, ईश्वर में विलीन होने तक जारी रहती है। अधिक जानकारी : yssofindia.org 

लेखिका: मंजुलता गुप्ता