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शहर में गांव की याद

 
शहर में गांव की याद​​​​​​​ 

विजय गर्ग 

हाल ही में खबर आई कि फरवरी के अंतिम दिनों में तेज धूप और गर्मी ने मौसम विभाग के साथ-साथ आम लोगों का ध्यान भी खींचा। बाद में पता चला कि फरवरी में इतनी गर्मी एक सौ छियालीस साल बाद पड़ी है। बाहर निकलने पर कुछ लोगों को गर्मी का अंदाजा नहीं था, तो उन्होंने शाल ओढ़ लिया था। हां, कह सकते हैं कि मई-जून की तपन नहीं थी, मगर बाहर निकलने पर इस मौसम के मुताबिक थोड़ी ज्यादा गर्मी का पता चला तब लोगों को शाल को लपेटकर थैले में रखना पड़ा।

सड़क किनारे लगे ऊंचे घने पेड़ सहारा बन

जाहिर है, फिर भी गर्मी से मुक्ति नहीं थी। ऐसे में सड़क किनारे लगे ऊंचे घने पेड़ सहारा बन जाते हैं। वे सड़क के साथ-साथ दूर तक चलते हैं। वक्त बदलते कितनी देर लगती है। महज कुछ दिन पहले तक ठंड की वजह से पेड़ों की छाया किसे बुरी नहीं लगती रही होगी? तब सड़क के दूसरी तरफ लोग तेज धूप की तरफ भागते रहे होंगे और अब धूप का मामूली-सा टुकड़ा भी बर्दाश्त नहीं हो पा रहा। जरूरतें कितना स्वार्थी और मतलबी बनाती हैं! एक लय में चला जाए तो मन में न जाने कितने खयाल आते हैं!

अब ठंड हो कि गर्मी, घर से बाहर निकलने पर जरूरत के सामान लेकर ही लौटने की फिक्र किसे नहीं होगी। तो दोपहर होने के बावजूद यह खयाल स्वाभाविक ही आएगा कि शाम को फिर से किसी को आना पड़ेगा, इसलिए दूध, पनीर आदि जरूरत की चीजें खरीद कर लेते ही चला जाए। व्यस्त इलाके की सड़क से हटकर कहीं सालों से एक बाजार अपने पूरा बनने की राह देख रहा होता है। भावी बाजार के परिसर में कहीं बीच की कच्ची और खाली जमीन में उग आए बहुत से पेड़-पौधों में बेर का एक ऊंचा पेड़ मुस्कुराता कैसा लग सकता है!

इसी तरह, पुराना पीपल गुलाबी बगुनबेलिया से ढक जाने पर बिल्कुल अलग ही छवि में होता है। आम, रबर का पौधा, कंचन रोटी, नीम अशोक, यूकलिप्टस आदि के बड़े-बड़े पेड़ गर्मी में याद आते हैं और होने पर साथ देते हैं। कौन जाने कि बड़ी सोसाइटियों के परिसरों में बनी बहुमंजिली इमारतों से पहले किन किसानों ने इन्हें रोपा होगा। या फिर बहुत से अपने आप ही उग आए होंगे!

लाल मकोय देखकर किसी को भी अपना बचपन याद आ जाएगा

इन छवियों और अनुभूतियों के बीच चलते-चलते कहीं हरे रंग का नन्हा पौधा, लाल मकोय से भरा दिख जाए तो किसी को अपना बचपन याद आ जाए। जैसे लाल टमाटरों को किसी ने छोटा करके लगा दिया हो। लाल मकोट का स्वाद भी खट्टे टमाटर जैसा होता है। बचपन में हममें से कइयों ने स्कूल जाते वक्त इन पौधों से मकोय तोड़कर खाया होगा। तब चैरी टमाटर का नाम शायद ही किसी ने सुना होगा। अब वैसे पौधे दिख भी जाएं और खाने का मन करने लगे, तो भी कई तरह के संकोच और डर घेर लेते हैं।

बचपन में कभी किसी बच्चे को इस बात की चिंता नहीं होती थी। जमीन पर पड़ा कोई भी फल बस पहने कपड़े से पोंछकर ही मुंह के हवाले हो जाता था। तब बच्चे इससे कभी बीमार भी नहीं पड़ते थे। आज तो मात्र इस शक के कारण ही बीमार पड़ जाए कोई कि खाने वाली चीज धोई नहीं गई थी। कहते हैं न कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। खैर, लाल मकोय के मुकाबले एक गहरे बैंगनी, गुलाबी, काले रंग की मिश्रित मकोय भी होती है। वह बहुत मीठी होती है। बुजुर्ग बताते हैं कि मकोय का इस्तेमाल वैद्य लोग बहुत-सी दवाएं बनाने में करते हैं। आज जब आयुर्वेद का काफी बोलबाला है, तब तो और अधिक इस पौधे के फलों, पत्तियों का इस्तेमाल होता होगा। पहले इसके पत्तों की भुजिया भी बनाती थी।

वनस्पति शास्त्र में मकोय का नाम है सोलोनम निग्रम और अंग्रेजी में ‘ब्लैक नाइट शेड’। तो क्या अंग्रेजी वालों ने वही मकोय देखा होगा, जो गहरे रंग की और स्वाद में मीठी होती है? टमाटर जैसे स्वाद और लाल रंग वाली मकोय पर उनकी नजर नहीं पड़ी होगी? एक और दिलचस्प बात कि गांव में ही बिल्कुल मकोय के पत्तों जैसा और लाल फलों वाला एक और पौधा होता है। हां, इसके पत्तों का रंग उतना गहरा हरा नहीं, बल्कि कुछ पीलापन लिए होता है। इसके फल बहुत जहरीले होते हैं। लेकिन गांव का बच्चा-बच्चा इन दोनों पौधों में अंतर कर सकता है।

गांव भी किस-किस तरह से जीवन भर हमारे साथ चलता है। हर बदलता मौसम गांव की तरफ ले जाता है। चाहे उसे छोड़े पांच दशक से अधिक का समय बीत गया। कुछ असुविधाओं, शिकायतों और ढांचों की वजह से गांव छोड़ दिया गया होगा, लेकिन शहरों में आने के बाद भी गांव की कमी की भरपाई नहीं हो पाती। कई बार तो वे वजहें शहरों में भी सताने लगती हैं। क्यों मारीशस, फिजी, सूरीनाम के लोग सदियां बीत जाने पर भी अपने गांव को नहीं भूले और आज भी यदा-कदा खोजने आते हैं, उस दर्द को समझा जा सकता है।